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Swar


ध्वनि की प्रारम्भिक अवस्था श्रुति है। श्रुति का अनुरणनात्मक गुंजित स्वरुप ही स्वर है। नियमित आंदोलन संख्या वाली ध्वनि ‘स्वर’ कहलाती है, जो कानों को मधुर लगती है, तथा चित को प्रसन्न करती है। इस ध्वनि को संगीत की भाषा में नाद कहते हैं। इस आधार पर संगीतोपयोगी नाद स्वर कहलाता है। जब कोई ध्वनि नियमित और आवर्त कंपन्नो से मिल कर उत्पन्न हो तो उसे स्वर कहते हैं।
जो दीर्घ मात्रा युक्त, किसी संपन्दन निश्चित स्थान में, किसी निश्चित संपन्दन संख्या से ध्वनित हो कर श्रोताओं को रंजक प्रतीत होती है, वह स्वर कहलाती है ।
संगीत में स्वरों की संख्या 12 मानी गई है । जिनमे से 7 शुद्ध स्वर तथा 5 विकृत स्वर माने गाये है । इस प्रकार हम कह सकते है की स्वर दो प्रकार के होते है । शुद्ध और विकृत ।
शुद्ध स्वर वह स्वर होते है जो अपने नियत स्थान से नहीं हिलते अर्थात वह स्वर अपनी निर्धारित की गई अवस्था में ही प्रयोग किए जाते है जैसे - स रे ग म प ध नी
विकृत स्वर वह स्वर होते है जो अपनी नियत अवस्था को त्याग कर नीचे या ऊपर चले जाते है जैसे रे, , , नी और मे । इन स्वरों को कोमल विकृत या तीव्र विकृत स्वर कहते है ।
कोमल विकृत वह स्वर होते है जो अपने नियत स्थान से नीचे आ जाते है जैसे रे ग ध और नी । यह स्वर जब अपनी शुद्ध अवस्था को त्याग कर नीचे आ जाते है तो वह कोमल स्वर कहलाते है ।
तीव्र विकृत वह स्वर होते है जो अपने नियत स्थान से ऊपर चढ़ जाते है जैसे मे । जब शुद्ध मध्यम अपने नियत स्थान को त्याग कर ऊपर चढ़ता है तो तीव्र विकृत की संज्ञा प्राप्त कर लेता है ।