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राग की परिभाषा, नियम एवं जातियां ( Definition, Rules and Jatis)

    राग स्वरों का वह समूह होता है जिसे गा कर या बजा कर मन को शांति मिलती है. राग शब्द रस धातु से बना है जिसका अर्थ है प्रसन्न करना राग में स्वर और वर्ण का मधुर मेल रजकता को उत्पन्न करता है । स्वरों के विशिष्ट क्रम से उत्पन्न ध्वनि जो जन मन का रंजन करने में समर्थ है उसे राग कहते हैं । सृष्टि के आरम्भ के साथ ही संगीत कला की उत्पत्ति हुई और संगीत के सातों स्वरों की सृष्टि के साथ ही उसकी विभिन्न योजनाओं ने राग - गायन को जन्म दिया । चाहे हमें राग अपने विस्तृत रूप से सबसे पहले मतंग कृत  बृहद्देशी  में मिलता है , परन्तु  राग गायन  उनसे पहले भी प्रचलित था । शार्दूल , आंजनेय , दुर्गा शक्ति , याष्टिक एवं कश्यप आदि संगीत के विद्वानों ने राग - गायन का निरूपण और प्रचार किया था । आज उनके ग्रंथ प्राप्य नहीं है परन्तु उनके बाद के ग्रंथकारों ने उनके यशोगान या सम्मान में जो श्लोक अपने ग्रंथों में उद्धृत किए हैं उससे स्पष्ट है कि नाट्य शास्त्र से पूर्व ही इन संगीत विद्वानों ने राग - गायन का प्रचार - प्रसार किया और वे अपने समय में सम्मानित स्थान रखते थे ।

7 शुद्ध स्वरों की ध्वनि के साथ - साथ उच्च या नीची ध्वनि जो अपने से कुछ समानता रखते हुए उत्पन्न हुई उन्हें विकृत स्वरों की संज्ञा दी गई ।  सा  और जैसे  प  स्वर को अचल स्वर माना गया और अन्य पांच शुद्ध स्वरों के दो - दो रूप हुए कोमल रे , कोमल ग तीव्र में , कोमल घ और कोमल नी । इस प्रकार सप्तक के 7 शुद्ध और 5 विकृत स्वरों से रागों की उत्पत्ति हुई । इन 12 स्वरों में से ही कोई 7 स्वर लेकर एक राग बन जाता है और स्वरों के थोड़े से हेर - फेर से कई रागों की उत्पत्ति होती है । तभी तो राग शब्द की व्याख्या में  पाप्ली  ने लिखा है , " स्वराष्टक में आने वाले स्वरों का वह विभिन्न क्रम राग है जो सभी भारतीय गीतियों का आधार स्वरूप होता है और जो कुछ स्थिर स्वरों को क्रमिकता के द्वारा एक दूसरे से अलग पहचाना जाता है

रागों के नियम :

1. प्रत्येक राग किसी न किसी थाट से उत्पन्न होता है क्योंकि आज हमारे यहाँ थाट राग - वर्गीकरण की प्रथा है अतः हर राग अपने से सम्बद्ध थाट से उत्पन्न माना जाता है । जिस राग के स्वर जिस थाट के स्वरों से समानता रखते हैं वह उसी थाटका जन्य राग मान लिया जाता है ( उत्तरी संगीत पद्धति में 10 थाटों के अन्तर्गत सब रागों का वर्गीकरण किया गया है ) ।

2. राग में कम से कम पांच स्वर और अधिक से अधिक 7 स्वर लग सकले हैं । पांच स्वरों से कम स्वरों का राग नहीं हो सकता क्योंकि हमारी संगीत पद्धति में  सा  और  प  को अचल स्वर माना है ।  सा  स्वर कभी भी किसी राग में वर्जित नहीं हो सकता क्योंकि यह संगीत का आधार स्वर है और  म   प  किसी राग में इकट्ठे वर्जित नहीं किए जा सकते और यदि हम अपने प्रचलित रागों की ओर दृष्टि दौड़ाएं तो हम पाते है कि हर राग में  म  या  प  अवश्य प्रयुक्त होते हैं । इनमें से एक का प्रयुक्त होना आवश्यक है अतः स्पष्ट है कि पांच स्वरों से कम स्वरों का राग नहीं बन सकता । इसी प्रकार हमारे सप्तक में 7 स्वर हैं अन्य पांच तो उन्हीं स्वरों के विकृत रूप हैं अतः यदि किसी स्वर के दोनों रूप भी प्रयुक्त हों तो स्वर तो एक ही कहलाएगा । स्वरों की इस प्रयुक्ति के कारण ही जातियों का निर्धारण होता है । इसका विस्तार आगे दिया जा रहा है ।

3. राग में आरोह तथा अवरोह का होना आवश्यक है । हमें पता है कि स्वरों के उतरते क्रम को आरोह तथा बड़ते क्रम को अवरोह कहते हैं । किसी भी राग को गाते - बजाते समय स्वरों का उतार - चढ़ाव तो निश्चित है अतः स्पष्ट है कि आरोह अवरोह से राग की चलन व स्वरूप स्पष्ट होता है । यही नहीं आरोह - अवरोह में प्रयुक्त स्वरों की संख्या से ही राग की जाति निर्धारित होती है ।

4. राग में रंजकता का होना अति आवश्यक है । स्वर और वर्ण दोनों के मेल से ही राग श्रुति मधुर होता है और श्रोताओं का रंजन करता है । अत: इस नियम से स्पष्ट है कि राग में स्वर और वर्ण ( गान - वादन क्रिया ) दोनों का होना आवश्यक है ।

5. राग में एक ही स्वर के दो रूप इकठे नहीं आ सकते । कई राग इसके अपवाद हैं क्योंकि कई कुशल संगीतकारों ने स्वर के दोनों रूपों का प्रयोग करके राग की रंजकता को बढ़ाया है और इस नियम विरुद्ध होते हुए भी रागों का प्रचलन हुआ । वास्तव में एक ही स्वर के दोनों रूप इकट्ठे नहीं आ सकते यह नियम शायद राग के रूप की विकृति होने के भय से बना होगा ।

6. राग में वादी और संवादी स्वर होने आवश्यक है। वास्तव में वादी या संवादी स्वर की भिन्नता से राग का रूप बदल जाता है क्योंकि राग के वादी स्वर का राम में अधिक प्रयोग, ठहराव, उसे बार - बार दिखाना, उसकी प्रबलता से राग की भिन्नता स्पष्ट हो जाती है ।

7. हर राग का गायन समय निर्धारित है और यह नियम प्राचीन समय से ही चला आ रहा है । चाहे समय के अनुरूप इस नियम में परिवर्तन होता रहा और विशेष अवसरों पर ढील भी दी जाती रही है पर यह आज भी किसी न किसी रूप में प्रचलित है ।

रागों की जातियां :

राग की जाति से अभिप्राय यह है कि उस राग में लगने वाले स्वरों की संख्या कितनी है । जिस राग में जितने स्वर लग रहे हैं उसके अनुरूप ही उसकी जाति निर्धारित की जाती है । संगीत चंद्रिका में लिखा है , " राग के आरोहण अवरोहण की स्वर संख्या के अनुसार जाति निर्धारण होता है । जाति के तीन प्रकार औढ़व , पाढ़व , संपूर्ण है । " हमने राग के उपरोक्त नियमों में पढ़ा है कि राग में कम से कम पांच और अधिक से अधिक 7 स्वरों का राग हो सकता है । अतः स्पष्ट है कि राग में पांच , छः या सात स्वर ही प्रयुक्त हो सकते हैं । इस प्रकार पांच , छ :, सात स्वरों के अनुसार रागों की मुख्य तीन जातियां मानी गई हैं सम्पूर्ण जाति , षाड़व जाति और औढ़व जाति ।

सम्पूर्ण :- सम्पूर्ण से तात्पर्य है सप्त स्वर समन्वित अर्थात् जिस राग में सातों स्वर प्रयुक्त होते हैं उसे सम्पूर्ण जाति का राग कहते हैं । हमें पता है कि 7 स्वरों से अधिक स्वर राग में नहीं लग सकते अत: जिस राग में सातों स्वर लग जाएं तो वह पूरे स्वर लगने वाला राग यानि सम्पूर्ण जाति का राग हुआ । यमन , बिलावल आदि राग सम्पूर्ण जाति के उदाहरण हैं जिनमें सातों स्वरों की प्रयुक्ति होती है और एक भी स्वर वर्जित नहीं होता ।

षाढ़व - षट् से षाढ़व शब्द निष्पन्न होता है और पाढ़ब से तात्पर्य छः से है अत : जिन रागों में स छोड़कर कोई भी एक स्वर वर्जित हो जाए वह षाढ़व जाति का राग कहलाएगा ।

औढ़व :- औढ़व से तात्पर्य 5 की संख्या है । संगीत रत्नाकर में लिखा है , औढ़व उडु शब्द का अर्थ है नक्षत्र तथा  वा  धातु का अर्थ है गति अतः जहाँ नक्षत्र गति मान होते हैं उस स्थान का नाम औढ़ व अर्थात् आकाश है ( आकाश पंच धातु से निर्मित है अत : पाँच स्वरों की प्रयुक्ति वाले राग औढ़व संज्ञा पाते हैं । अब जिन रागों में  सा  के अतिरिक्त और  म प  इकट्ठे नहीं , के अतिरिक्त कोई दो स्वर वर्जित हों और अन्य 5 स्वरों का प्रयोग हो उन्हें औढ़व जाति का राग कहेंगे ।

रागों को देखने पर पता चलता है कि कई राग ऐसे हैं जिनके आरोह और अवरोह में स्वर संख्या में भिन्नता होती है अर्थात् यदि किसी राग के आरोह में सातों स्वर लगते हैं तो उसके अवरोह में छ : या पांच स्वर भी हो सकते हैं । अतः सभी रागों की पहचान के लिए उपरोक्त तीन जातियों में से हर एक की तीन - तीन उपजातियां और बना दी गई हैं । इस प्रकार 3x3 = 9 जातियां रागों की बनायी

 

सम्पर्ण

 

सम्पूर्ण - सम्पूर्ण

सम्पूर्ण - षाढ़व

सम्पूर्ण - औढ़व

1. सम्पूर्ण - सम्पूर्ण जाति के रागों के आरोह तथा अबरोह दोनों में 7,7 स्वर लगते है और कोई भी स्वर वर्जित नहीं होता ।

2. सम्पूर्ण षाढ़व : जिस राग के आरोह में सात और अवरोह में छ : स्वर लगे उसे सम्पूर्ण षाढ़व जाति का राग कहते हैं । इस जाति के अवरोह में सा के अतिरिक्त कोई एक स्वर वर्जित हो सकता है ।

3. सम्पूर्ण - औढ़व इस जाति के राग के आरोह सात और अवरोह में पांच स्वर लगते हैं । इस जाति के राग के अवरोह में स के अतिरिक्त ( म - प इकट्ठे नहीं ) कोई दो स्वर वर्जित हो सकते हैं ।

 

षाढ़व

 

षाढ़व – सम्पूर्ण

बाड़व - षाढव

षाढ़व - षाढ़व

4. षाढ़व - सम्पूर्ण : इस जाति के आरोह में छः और अवरोह में सातों स्वर लगते हैं । इसके आरोह में एक स्वर वर्जित हो सकता है लेकिन अवरोह में वह वर्जित स्वर भी लगेगा ।

5. षाढ़व - पाढ़व जाति रागों के आरोह - अवरोह में छ : -छः स्वर प्रयुक्त होते हैं । राग के आरोह - अवरोह दोनों में  सा  के अतिरिक्त कोई एक वर्जित हो सकता है ।

6. षाढ़व - औढ़व जाति के रागों के आरोह में छः स्वर और अवरोह में पांच स्वर लगते हैं । इसके आरोह में एक और अवरोह में दो स्वर वर्जित हो सकते हैं ।

 

औढ़व

 

औढ़व – सम्पूर्ण

औढ़व - षाढ़व

ओढ़व - औढ़व

7. औढ़व - सम्पूर्ण : इस जाति के राग के आरोह में पांच और अवरोह में सातों स्वर लगते हैं । राग के आरोह में दो स्वर वर्जित होंगे पर अवरोह में वह स्वर लगेंगे ।

8. औढ़व - पाढ़व : इसके आरोह में पांच और अवरोह में छः स्वर लगते हैं । इस राग के आरोह में दो स्वर वर्जित होंगे पर अवरोह में एक स्वर वर्जित होगा ।

9. औढ़व - औढ़व जाति के रागों के आरोह - अवरोह दोनों में पांच - पांच स्वर

रागों की उपरोक्त जातियों के आधार पर ही रागों का निर्माण किया जाता है । क्योंकि आरोह - अवरोह में कोई एक या दो स्वरों को वर्जित करके विभिन्न रागों की उत्पत्ति की जाती है । इस प्रकार रागों को कुल व जातियों से 484 रागों की उत्पत्ति की जाती है । हमारे यहां दस थाट प्रचलित है अन्य विचारों से 484X10 = 4840 राग बन जाते हैं , परन्तु रंजकता की दृष्टि से कुछ राग ही प्रचलित हैं ।