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भारतीय स्वर सप्तक का विकास ( Development of Indian Musical Scale )

भारतीय संगीत का मूलाधार स्वर है । स्वरों से स्वर सप्तक का निर्माण होता है , जो कि भारतीय संगीत की नींव है । सप्तक का शब्दिक अर्थ है- सात । संगीत में सात स्वरों के समूह को सप्तक कहा जाता है । पश्चात्य संगीत में सप्तक को आक्टेव ' ( Octave ) के नाम से जाना जाता है , जो वास्तव में मध्य ' स ' से तार ' सं ' तक आठ | स्वरों का सूचक है । भारतीय संगीत में ' सात स्वरों के क्रमानुसार समूह ' को ही सप्तक ' कहा जाता है , जो कि ' स रे ग म प ध नि ' हैं । इन सात शुद्ध स्वरों के अतिरिक्त पाँच विकृत स्वरों का समावेश भी सप्तक में रहता है । इस प्रकार मोटे तौर पर सप्तक में 12 स्वर रहते हैं । 

सप्तक के सात स्वर एक ही समय अस्तित्व में नहीं आए बल्कि इन्हें अपना मूल रूप धारण करने के लिए शताब्दियां लग गईं । स्वर सप्तक के विकास को जानने के लिए , हम भारतीय संगीत के इतिहास को चार भागों में विभाजित करके जान सकते हैं : 

अति प्राचीन काल ( 3000 ई ० पूर्व से 1000 ई ० पूर्व तक ) 

प्राचीन काल ( 1000 ई ० पूर्व से 800 ई ० तक )

मध्य काल ( 800 ई ० से 1800 ई ० तक )

आधुनिक काल ( 1800 ई ० से अब तक ) 

अति प्राचीन काल 

वैदिक युग में स्वरों का विकास :- भारतीय संगीत का आरम्भ वैदिक युग से होता है , क्योंकि संगीत के प्रत्येक पक्ष का मूल स्रोत वैदिक साहित्य ही माना जाता है । प्राचीनतम ग्रन्थ ' ऋग्वेद ' की ऋचाओं का गायन प्रारम्भ में एक ही स्वर में , भिन्न - भिन्न मात्राओं में किया जाता था । यह मात्राएँ तीन प्रकार की थीं । 1. हस्व , 2. दीर्घ , 3. प्लुत । त्रग्वेद में ही ' आर्चिना गायन्ति ' , ' गाथिनो गायन्ति ' , ' सामिनो गायन्ति ' ये पद मिलते हैं । जिस का अभिप्राय यह है कि प्रारम्भ में जो एक स्वर का गान होता था , उसे ' आर्चिक गायन ' कहते थे । कुछ समय के पश्चात् दो स्वरों का गायन हुआ , जो ' गाथिक गायन ' कहलाया और तदुपरान्त तीन स्वरों का गायन ' सामिक ' कहलाया । आर्थिक का प्रयोग ऋचा के उच्चारण में , गाथिक का गाथा गान में तथा सामिक का सामगान में होता था । सामिक के स्वर क्रमशः ' गरें सं ' तार सप्तक के थे । गंधार स्वर कभी - कभी कण के रूप में अगला स्वर लेकर चलता था । अत : स्वरों की संख्या चार हो गई । इस चतु स्वर में गरेसं का गायन ' स्वरान्तर ' कहलाया । वैदिक गान पहले चार स्वरों तक ही सीमित था परन्तु उत्तर वैदिक काल में साम गान में सात स्वरों का प्रयोग होने लगा था । 

'यजुर्वेद' में सामगान के तीन स्वर , उदात्त , अनुदात्त व स्वरित बताए गए हैं । ध्वनि के अनुसार उदात्त ऊँचा स्वर और अनुदात्त नीचा स्वर था । स्वरित की ध्वनि व्यवस्था के विषय में ग्रन्थकारों के मत भिन्न - भिन्न कालों में बदलते रहे हैं । पाणिनी अष्टाध्यायी ' से केवल इतना मालूम होता है कि स्वरित का उदात्त , अनुदात्त से मेल होता था परन्तु यह ज्ञात नहीं होता कि तीनों स्वरों में इसका स्थान कौन - सा था । ' त्रकप्रतिसांख्या ' ग्रन्थ ( 400 ई ० पूर्व के लगभग ) में वैदिक काल के उपर्युक्त चारों स्वरों के नाम प्रथमा , द्वितीय , तृतीय व चतुर्थ दिए हैं और यह भी बताया गया है कि इनका प्रयोग अवरोहात्मक होता था । ' तैत्तरीय प्रतिसांख्या ' ग्रन्थ में प्रथमा का नाम ' क्रुष्ट ' लिखा है । आगे चल कर स्वर संवाद के आधार पर एक - एक करके स्वरों का विकास होता गया और उत्तर वैदिक काल में सामगान सात स्वरों में होने लगा था । इसका प्रमाण हमें ' माण्डूक्य शिक्षा ' के निम्न श्लोक से होता है : 

सप्त स्वरास्तु गीयन्ते सामभिः सामगैबुधैं 

' पाणिनी शिक्षा ' में एक श्लोक मिलता है जिसके अनुसार उपर्युक्त सातों स्वर उदात्त , अनुदात्त और स्वरित स्वरों के अन्तर्गत माने जाते थे । 

उदात्तो निषादगान्धारौ अनुदात्त ऋषभधैवतो । 

स्वरित प्रभवा ह्योते षड्जमध्यमपञ्चमाः । 

उपर्युक्त श्लोक के अनुसार निषाद और गन्धार स्वर उदात्त के अन्तर्गत , रिषभ और धैवत अनुदात्त के अन्तर्गत और शेष घडज , मध्यम और पंचम स्वरित के अन्तर्गत सामवेद के काल में सामगान पूरे सात स्वरों में गाया जाने लगा था । सामवेद में इन सात स्वरों की संज्ञा उपर्युक्त संज्ञा से भिन्न है । इन सात स्वरों को क्रुष्ट , प्रथम , द्वितीय , तृतीय , चतुर्थ , मन्द्र और अति स्वर कहा गया है । इन स्वरों की तुलना इस प्रकार की जा सकती है :


सामगान के इन सात स्वरों का समय 2500 ई 0 पूर्व के बीच का माना गया है । इसी काल में तीन सप्तकों का भी पल्लेख मिलता है । 1100 ई ० पूर्व से ई ० के बीच एक अन्य परिवर्तन आया । जहाँ पहले सप्तकों का केवल उल्लेख मा था , वहाँ सामगान के लिए तीन सप्तकों का प्रयोग भी होने लगा था । पाणिनी ने । तीन सप्तकों के लिए अनुदात्त मन्द , स्वरित मध्य व उदात्त तार नामों का प्रयोग किया है । सारांश यह कि स्वरों के विकास का क्रम वैदिक संगीत में ही पाया जाता है । उत्तर वैदिक काल तक सातों स्वर प्रचार में आ गए थे । 

प्राचीन काल में स्वरों का विकास :- सात शुद्ध स्वरों की उत्पत्ति तो वैदिक काल में हो चुकी थी । उन सात स्वरों में अब विकृत स्वर जुड़ने लगे थे । प्राचीन काल के स्वर सप्तक का वर्णन भरत कृता ' नाट्य शास्त्र ' , मतंग कृत ' बृहदेशी ' तथा शारंगदेव कृत ' संगीत रत्नाकर ' ग्रन्थ में मिलता है ।

भरत के स्वर :- भरत , संगीत शास्त्र के आदि आचार्य माने जाते हैं । भरत ने षड्ज , रिषभ , गंधार आदि सात स्वर सामवेद के ही माने हैं । उनके मतानुसार इन सात स्वरों में 22 श्रुतियों का समावेश है । षड्ज , मध्यम , पंचम की चार - चार श्रुतियां रिषभ , धैवत की तीन तीन और गंधार तथा निषाद को दो - दो श्रुतियां हैं । 

भरत ने सात शुद्ध स्वरों के अतिरिक्त ' अन्तर गंधार ' और ' काकली निषाद ' दो विकृत स्वर माने हैं परन्तु इन स्वरों को विकृत न कह कर स्वर ' साधारण ' की संज्ञा दी है । भरत की पद्धति में इन विकृत स्वरों का प्रयोग स्वतन्त्र रूप से नहीं होता था । इनका प्रयोग अल्प मात्रा में केवल आरोही में होता था । तात्पर्य यह कि इन विकृता स्वरों का भरत की पद्धति में केवल ' प्रवेशक स्वर ' के रूप में प्रयोग होता था । 

मतंग के स्वर :- भरत के पश्चात् मतंग ने भी अपने ग्रन्थ ' बृहदेशी ' ( सातवीं शताब्दी के लगभग ) में भी दो विकृत स्वर माने परन्तु मूर्च्छनाओं में 12 शुद्ध स्वरों का संकेत किया । इसमें तीन मन्द्र के स्वर तथा दो तार के स्वर भी मिला दिये । मतंग की इस 12 स्वरों वाली मूर्च्छना प्रणाली को लोगों ने स्वीकार नहीं किया ।

शारंगदेव के स्वर :- शारंगदेव के संगीत रत्नाकर ' ( 13 वीं शताब्दी ) में स्वरों को विकृत संज्ञा सब से पहले पाई जाती है । इससे पहले विकृत स्वरों का प्रयोग तो किया जाता था परन्तु उन्ने विकृत संज्ञा प्राप्त नहीं थी । शारंगदेव ने सात शुद्ध व 12 विकृत स्वर माने हैं , इस प्रकार हैं : 1. कौषिकी निषाद , 2. काकली निषाद , 3. च्युत घडज , 4. अच्युत अडज , 5. च्युत षडज ऋषभ ( चतुश्रुतिक ऋषभ ) , 6. साधारण गन्धार , 7. अन्तर गन्धार , च्युत मध्यम , 9. अच्युत मध्यम 10. मध्यम ग्रामी पंचम ( त्री श्रुतिक पंचम ) , 4. कौषिकी पंचम , 12. मध्यम ग्रामी धैवत ( चतुश्रुतिक धैवत ) । 

मध्य काल में स्वर सप्तक का विकास :- मध्य काल में भारतीय संगीत में मध्यम ग्राम निश्चत रूप से लोप हो गया और घडज ग्राम ही संगीत का आधार रहा । षडज और पंचम हमेशा के लिए नियत स्वर ( अचल स्वर ) निर्दिष्ट हो गए । रागों के वर्गीकरण के लिए विकृत स्वरों के उपयोग से मेलों का निरूपण होने लगा और सब से महत्त्वपूर्ण बात यह हुई कि भरत और शारंगदेव के स्वरों के अवरोही क्रम का लोप हो गया और आरोही क्रम की प्रतिष्ठा हुई ।

मध्य काल में उत्तरी एवं संगीत विद्वानों ने भिन्न - भिन्न विकृत स्वरों का उल्लेख किया । मध्य काल में दक्षिणी विद्वानों पंडित रामामात्य , पुंडरीक विट्ठल , सोमनाथ और पंडित व्यंकटमखी ने भिन्न - भिन्न विकृत स्वरों का उल्लेख किया । दक्षिण संगीत पद्धति में विकृत स्वरों के लिए साधारण गन्धार , अन्तर गन्धार , कैषिकी निषाद , काकली निषाद और च्युत अथवा अच्युत संज्ञा का प्रयोग हुआ । रामामात्य ने च्युत के स्थान पर ' मृदु ' शब्द ( मृदु मध्यम ) का प्रयोग किया । व्यंकटमखी ने मध्यम की विकृत अवस्था को ' वेराड़ी मध्यम ' कहा है । 

उत्तरी संगीत पद्धति में पं ० लोचन , आहोबल , हृदय नारायण देव और श्रीनिवास को प्रतिनिधि माना जाता है । पं ० लोचन ने ' राग तरंगणी ' में 9 विकृत स्वर माने हैं । पंडित आहोबल ने अपने ग्रन्थ ' संगीत पारिजात ' में 22 विकृत स्वरों की कल्पना की है । पंडित आहोबल की संगीत पद्धति में 29 स्वर नामों ( 7 शुद्ध , 22 विकृत ) का प्रयोग किया गया है परन्तु रागों का विवरण देते समय 12 से अधिक स्वरों का प्रयोग उन्होंने कभी नहीं किया । वीणा के तार पर स्वर स्थापना करते समय भी सात शुद्ध और पाँच विकृत स्वरों की स्थापना की । श्री निवास ने अपने ग्रन्थ ' राग तत्व विबोध ' में भी सात शुद्ध और पाँच विकृत स्वरों की स्थापना वीणा की तार की सहायता से की है । 

उत्तरी संगीत पद्धति में विकृत स्वरों के लिए तीव्र , तीव्रतर , तीव्रतम , कोमल पूर्व आदि संज्ञाओं का प्रयोग किया गया । ग्रन्थकारों ने एक तरफ प्राचीन परम्परा को मानते हुए 22 श्रुतियों के आधार पर स्वरों की स्थापना की और दूसरी ओर वीणा के तार पर सात शुद्ध और पाँच विकृत स्वरों की स्थापना की और आधुनिक स्वरों का द्वार खोला । 

आधुनिक स्वर सप्तक :- आधुनिक उत्तर भारतीय संगीत पद्धति का आधार स्वरित अर्थात् षडज है । स्वरित की इतनी प्रधानता है कि कोई भी संगीत इसके बिना नहीं हो सकता । गायन अथवा वाद्य के लिए स्वरित की लगातार संगति आवश्यक है । आधुनिक हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति में शुद्ध ग्राम ' बिलावल ' माना गया है । दक्षिण पद्धति में ' कनकांगी ' के स्वा शुद्ध माने गए हैं । आधुनिक काल में सात शुद्ध और पाँच विकृत 12 स्वर मान कर 22 श्रुतियों को उनका आधार माना जाता है । पाँच विकृत स्वरों में रे ग ध नि स्वरों की विकृति उतराव की ओर होती है और केवल मध्यम की चढ़ने की ओर । 

आधुनिक पद्धति के प्रमुख शास्त्रकार पंडित विष्णु नारायण भातखण्डे तथा पंडित औंकार नाथ ठाकुर हैं । पंडित भातखण्डे ने वर्तमान समय में प्रचलित शुद्ध और विकृत स्वरों की स्थापना को अधिक वैज्ञानिक आधार पर बताने के लिए दो दंग अपनाए हैं । 1. वीणा के तार पर विभिन्न लम्बाई पर स्वरों का स्थान नियत करना , 2. प्रति सैकिण्ड उत्पन्न अन्दोलन ( Vibration ) से स्वर स्थानों का निर्णय करना । उनके ग्रन्य ' अभिनव राग मंजरी ' और ' श्रीमल्लक्षय संगीतम् ' आधुनिक पद्धति के आधार गन्ध माने जाते हैं । उन्होंने प्राचीन परम्परा के अनुसार स - म - प की चार - चार श्रुतियां , रे , ध की तीन - तीन और ग , नि की दो - दो श्रुतियां मानते हुए , प्रत्येक शुद्ध स्वर को उसको प्रथम श्रुति पर रखा , जबकि प्राचीन तथा मध्यकालीन स्वर व्यवस्था में स्वरों को उन की अन्तिम श्रुति पर माना जाता था । आधुनिक काल में स्वरों को पहली श्रुति पर स्थापित करने का मत्त पंडित औंकार नाथ को अमान्य था । वह आधुनिक स्वर सप्तक को प्राचीन स्वर सप्तक के समान ही मानते थे । 

वर्तमान में उत्तर भारतीय संगीत पद्धति में बिलावल को शुद्ध थाट माना जाता है । उत्तर भारतीय स्वर सप्तक के 7 शुद्ध और 5 विकृत स्वर इस प्रकार हैं सो रे ग ग म म प ध ध नि नि । आधुनिक काल में यही स्वर सप्तक सर्वमान्य है ।