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वादन शैलियाँ

 वादन शैलियाँ

गीत वाद्यं तथा नृत्तं तयं संगीत मुच्यते ( संगीत रत्नाकर , प्रथाम स्वराध्याय)

संगीत रत्नाकर ग्रन्थ में दी गई संगीत की उपयुक्त परिभाषा के अनुसार प्राचीन से ही संगीत के अन्तर्गत गायन , वादन और नृत्य का समावेश माना गया है शास्त्रीय संगीत के अन्तर्गत यह तीनों विद्याएँ मान्य रही हैं । 

वादन संगीत की परम्परा :- प्राचीन काल में इन तीनों कलाओं का प्रयोग अधिकतर एक साथ ही हुआ करता था , क्योंकि वैदिक काल का संगीत विशेष रूप से धर्म से संबंध था । धार्मिक कर्मकाण्डी पर यज्ञ आदि के अवसर पर जो गायन होता था , वह वाद्यों की संगति में ही होता था । वाद्यों द्वारा गायन तथा नृत्य की संगति के उल्लेख प्राचीन काल के ग्रन्थों में मिलने हैं परन्तु साथ ही एकांकी वादन भी प्रचलित था । ' वाण ' नामक वीणा का प्रचार वैदिक काल में था । इस वीणा के स्वतन्त्र वादन की प्रथा भी प्रचार में थी 

ऐतिहासिक दृष्टि से ग्रन्थों का अवलोकरन करने से प्रतीत होता है कि वैदिक काल के बाद भी सभी युगों में वाद्यों का स्वतन्त्र वादन भी होता रहा है । संगीत के प्राचीनतम ग्रन्थ भरत कृत ' नाट्य शास्त्र ' में वीणा वादन की विधि का उल्लेख मिलता है । भरत ने वीणा वादन क्रिया के सम्बन्ध में दाहिने तथा बायें हाथ के अलग अलग तथा दोनों हाथों को मिलाकर अनेक पद्धतियों का वर्णन किया है । इन समस्त क्रियाओं को भरत ने ' धातु ' कहा है । दाहिने तथा बायें हाथ के चार प्रकार के धातु ( क्रियायें ) विस्तार धातु , करण धातु , आविद्ध धातु एवं व्यंजन धातु माने हैं और इनका विस्तृत वर्णन किया है । उस समय वीणा वादन विलम्बित , मध्य तथा द्रुत लयों के अनुसार तीन प्रकार से होता था , जिसके लिए क्रमश : तत्व , अनुगत तथा । ओध संज्ञाएँ थीं : 


त्रिविधं गीते कार्य वीणासमुद्भवं तज्ज्ञैः । 

तत्वं ह्यनुगतमोघः स्थानैकरण समायुक्ताः ।। 

( नाट्य शास्त्र , अध्याय ३१ , भाग ४ पृष्ठ १०३ )


शारंगदेव कृत ' संगीत रत्नाकर ' के वाद्याध्याय में भी वाद्यों के विस्तृत वर्णन के साथ वाद्यों के स्वतन्त्र वादन का भी उल्लेख है । चार प्रकार के वादन शुष्क , गीतानुग , नृत्यानुग , द्वयानुग थे । इन में से शुष्क गीत और नृत्य की संगति के बिना प्रयुक्त होने वाला स्वतन्त्र वादन था । गीतानुग गीत का अनुगमन करने वाला , नृत्यानुस नृत्य का अनुगमन करने वाला तथा द्वयानुग गीत और नृत्य दोनों का अनुगमन करने वाला वादन प्रकार था । संगीत रलाकर ग्रन्थानुसार चार प्रकार के बादस में से जिसे ' शुष्क वादन ' कहा गया है , वही उस समय का स्वतन्त्र वादन था । 

इस प्रकार ऐतिहासिक अवलोकन से हमें पता चलता है कि स्वतन्त्र वादन सदैव ही भारतीय संगीत में प्रचलित रहा है परन्तु अब विचारणीय बात यह थी कि बागों की वादन शैली क्या थी अर्थात् स्वतन्त्र वादन में किस प्रकार की सामग्री वाद्यों पर बजाई जाती थी । 

वादन शैलियों की ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि :- स्वतन्त्र वादन की परम्परा में प्राचीन काल और मध्य काल में , गायन सामग्री को ही वाद्यों पर बजाया जाता था । संगति करने के अतिरिक्त , स्वतन्त्र वादल के रूप में तत्कालीन गायन सामग्री को ही वाद्यों पर प्रस्तुत कर दिया जाता था । नाट्य शास्त्र ' में जाति गायन का उल्लेख मिलता है । जातियों को सुन्दर बनाने के लिए विभिन्न वर्ण एवं अलंकारों का प्रयोग होता था । यही जाति गायन वाद्यों पर भी बजाया जाता था । इस सम्बन्ध में नाट्य शास्त्र में उल्लेख मिलता है : 


यं यं गाता स्वरं गच्छेत् तमातोयै प्रयोजयेत 


अर्थात् गायक जिन जिन स्वरों का प्रयोग करे , उन्हीं का वाद्यों के द्वारा प्रयोग किया जाना चाहिए । लगभग तेरहवीं शताब्दी तक वादन की यही शैली प्रचलित थी । • तत्पश्चात् प्रबन्ध गायन और फिर ध्रुवपद गायन , संगीत में प्रचलित हुए । इस समय तक भी वीणा वाद्य पर ध्रुवपद गायन की भान्ति चार ताल , सूल ताल , आदि ताल की चीजें , मृदंग की संगति में बजाई जाती थीं । लगभग अठारहवीं शताब्दी तक वीणा , रबाघ , सुर श्रृंगार आदि वाद्यों पर स्वतन्त्र वादन के रूप में ध्रुवपद ही बजाया जाता था । अर्थात् गायन शैली ही वास्तव में वादन शैली थी । 

अठारहवीं शताब्दी के मध्य में वादन शैली में कुछ अन्तर आया । उत्तर भारतीय संगीत में तानसेन के वंशजों ( तानसेन स्वयं उच्चकोटि के गायक थे परन्तु उनके वंशजों में अनेक तंतकार हुए , जो आगे चलकर ' सेनिया ' कहलाए ) में से मसीन खाँ ने तंत्रीवाद्य के एक नए बाज ( बजाने का ढंग अथवा शैली ) का निर्माण किया , जो अत्यन्त लोकप्रिय हुआ । वास्तव में तन्त्री वाद्यों में स्वतन्त्र वादन शैली का प्रारम्भ इसी समय हुआ । यह बाज उनके नाम से ही ' मसीतखानी बाज ' के नाम से प्रचलित हुआ । मसीत खाँ के पश्चात् अमीर ख़ाँ तथा उन्नीसवीं शताब्दी में रजा खाँ ने भी एक बाज का प्रचलन किया । अमीर खानी बाज लगभग मसीत खानी बाज के समान ही था , अत : इस बाज का प्रचार अधिक न हो सका । 

मसीत ख़ाँ और रज़ा ख़ाँ के बाज से स्वतन्त्र वादन शैली के नवीन युग का प्रारम्भ हुआ । ये दोनों बाज क्रमशः विलम्बित और द्रुत लय के थे । इनके प्रचार से से पृथक , संगीत को नवीन सामग्री मिली । बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक दोनों बाज में जिस प्रकार का वादन होता रहा , उससे आज की वादन शैली भी कुछ भिन्न हो गई है । 

आधुनिक काल की वादन शैलियाँ :- आधुनिक काल में सितार , सरोद आदि तन्त्र वाद्यों में अधिकतर मसीत खानी और रज़ाखानी गतों का ही प्रचलन है परन्तु इनके वादन में कुछ अन्तर आ गया है । आधुनिक काल की वादन शैली ख्याल गायकी से प्रभावित है । वाद्यों में इस गत वादन के अतिरिक्त ठुमरी वादन तथा धुन वादन का प्रचार भी आज बढ़ता जा रहा है । अत : सितार आदि वाद्यों में निम्नलिखित चार प्रकार की वादन शैलियों का आज प्रचलन : 

1. मसीत खानी बाज अथवा गत 2. रज़ाखानी गत 3. ठुमरी वादन 4. धुन वादन 


उपर्युक्त वादन शैलियों का वर्णन करने से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि ' गत ' किसे कहते हैं 


सितार , सरोद , वीणा आदि वाद्यों पर बजाई जाने वाली रागानुकूल स्वर - ताल बद्ध रचना को ' गत ' कहा जाता है । जिस प्रकार गायन में स्वर तथा शब्दों के समन्वय से ' गीत ' बनता है , उसी प्रकार वाद्यों के बोलों के अनुसार किसी राग के स्वरों की कोई रचना ताल - बद्ध हो कर ' गत ' कहलाती है । गत साधारणतः राग के अलाप के पश्चात् , ताल की संगति में बजाई जाती है । आज मुख्यतः मसीतखानी और रजाखानी गतों का प्रचलन है । 

मसीत खानी गत :- तानसेन के वंशजों में से फिरोज़ ख़ाँ और उनके सुपुत्र मसीत ख़ाँ हुए हैं । फिरोज खाँ तक सितार पर ध्रुवपद शैली का वादन ही होता था । मसीत ख़ाँ ने सितार के एक बाज ( ढंग अथवा शैली ) का आविष्कार किया , जो मसीत खानी बाज अथवा गत या शैली के नाम से प्रसिद्ध हुई । मसीत ख़ाँ दिल्ली में बस गए थे , अतः इस बाज को " दिल्ली बाज ' अथवा ' पश्चिमी बाज ' भी कहा जाता है । 


मसीत खानी वादन शैली की कुछ प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं :- 


  • यह गत विलम्बित लय में बजाई जाती है । 

  • यह गत तीन ताल में निबद्ध होती है और इसका उठान 12 वीं मात्रा से किया जाता है । अर्थात् इस गत का मुखड़ा पाँच मात्रा का होता है । तीन ताल के अतिरिक्त अन्य तालों में निबद्ध विलम्बित लय की गतों को , विलम्बित गत तो कहा जा सकता है परन्तु मसीत खानी गत नहीं क्योंकि मसीत खानी गत के अपने बोल ट 

  • मसीत खानी गत के बोल दिर दा दिर दा रा दा दा रा , दिर दा दिर दा रा दादा रा क्रम में बजाए जाते हैं । इन बोलों में परिवर्तन नहीं किया जा सकता बल्कि इन बोलों में ही विभित्र स्वर समूह कुशलता पूर्वक बजाए जाते हैं । 

  • मसीत खानी गत के स्थायी और अन्तरा मुख्यतः दो भाग होते हैं । कई बार स्थायी में मंझार भी होता है । प्रायः स्थायी एक आवर्तन की और अन्तरा दो आवर्तनों का होता है । 

  • मसीतखानी गत वादन समय गमक , मोंड , कण , कृन्तन , मुर्की इत्यादि क्रियाओं का विशेष प्रयोग किया जाता है । 

मसीत खानी गत के बोल , ताल तथा चलन की भान्ति इस गत की बढ़त की भी अपनी विधि है । मसीत खानी गत में स्वर विस्तार ( जिसमें कलाकार अलाप , जोड़ तथा झाले का काम अपनी प्रतिभा तथा शिक्षा के अनुरूप करता है ) करने के पश्चात् स्थायी और अन्तरा बजाए जाते हैं । कण , मौंड , कृन्तन , जमजमा इत्यादि क्रियाओं के प्रयोग से इसे सुसजित किया जाता है । तत्पश्चात् विशेष क्रम से तोड़े लिए जाते हैं । चूंकि गत की लय विलम्बित होती है , इस लिए विभिन्न लयकारियों के तोड़े बड़े आकर्षक तथा कलात्मक प्रतीत होते हैं । प्रारम्भ में मसीत खानी गों की  बढ़त गत के बोलों के आधार पर ही मिजराव के बोलों को बदल - बदल कर की जाती थी परन्तु आधुनिक काल की वादन शैली ख्याल गायकी से प्रभावित हो गई , जिसके परिणाम स्वरूप वाद्यों पर और विशेष कर सितार पर तोड़ों का स्थान तानों ने ले लिया है । सरोद वादन में अभी भी अधिकतर तोड़े ही बजाए जाते हैं , क्योंकि सभी प्रकार की तानों का वादन सरोद में सम्भव नहीं । 

रजाखानी गत :- 18 वीं शताब्दी के अन्त में लखनऊ निवासी गुलाम रजा ने सितार पर मध्यलय और द्रुत लय को गतों का प्रचार किया , जो उन्हीं के नाम से रजाखानी गर्नु कहलाई । गुलाम रजा लखनऊ निवासी थे , अत : इनके द्वारा निर्मित बाज को ' लखनवी बाज ' या ' पूरव बाज ' भी कहा जाने लगा । 

रज़ाखानी गते मसीत खानी गतों की भान्ति गम्भीर प्राकृति की नहीं होती । मसीत . खानी गते शान्त और रज़ाखानी गतें चंचल होती हैं । रज़ाखानी गतों के बोलों का क्रम मसीत खानी गतों की भान्ति निश्चित् नहीं होता , क्योंकि आवश्यकतानुसार मिजराव के बोलों को अनेक प्रकार से तालबद्ध करके इन गतों की रचना की जाती है । इस गत का उठान भी निश्चित् नहीं होता । सम , सातवीं मात्रा , खाली तथा तेरहवीं मात्रा कहीं से भी गत का उठान किया जा सकता है । उसी उठान के हिसाब से बोलों का गठन किया जाता है । उदाहरण के लिए : 

तेरहवीं मात्रा से प्रारम्भ होने वाली गत के बोल : 


13

14

15

16

1

2

3

4

5

6

7

8

9

10

11

12

दा

दिर

दा

रा

दा

S

दा

रा

दा

दिर

दिर

दिर

दाS

रदा

Sर

दा

3




x




2









खाली से प्रारम्भ होने वाली गत के बोल 


9

10

11

12

13

14

15

16

1

2

3

4

5

6

7

8

दा

दिर

दिर

दिर

दाS

रदा

Sर

दा

दा

s

s

दिर

दाS

रदा

Sर

दा




3




x




2





सातवीं मात्रा से प्रारम्भ होने वाली गत के बोल 


7

8

9

10

11

12

13

14

15

16

1

2

3

4

5

6

दिर

दिर

दाS

रदा

Sर

दा

दाS

रदा

Sर

दिर

दा

s

दा

रा

दा

रा






3




x




2



उपर्युक्त उदाहरणों के अतिरिक्त किन्हीं अन्य स्थानों से भी गत का उठान किया जा सकता है और उसी के अनुरूप बोलों का गठन कर लिया जाता है । दा दिर दिर दिर दा रदा ऽरा दा के बोलों का प्रयोग प्रायः इन गने में किया जाता है । आज कल यह गतें तीन ताल के अतिरिक्त द्रुत लय की किसी भी ताल में निबद्ध की जाती हैं । गत के पश्चात् दुगुन में तोड़े बजाए जाते हैं , जो चार मात्रा से लेकर कई आवर्तनों के होते हैं । अन्त में लय द्रुत करके झाले का काम बड़ा सुन्दर प्रतीत होता है । 

वर्तमान काल में सितार , सरोद और वीणा पर मसीतखानी और रजाखानी दोनों प्रकार की गतों का वादन होता है , परन्तु प्रारम्भ में जिस प्रकार इन गतों का वादन होता था , आज उसमें पर्याप्त भिन्नता आ गई है । प्रारम्भ में इनकी वादन शैली में मिज़राब वादन शैलियों बोलों का काम अधिक होता था । इस शैली में दाहिने हाथ का महत्व अधिक था । आधुनिक काल को वादन शैली ख्याल गायकी से प्रभावित है । इसमें दाहिने की अपेक्षा भवि शाम को अधिक महत्व प्राप्त है । मौंड का काम अधिक किया जाता है । सितार ने इस गायकी अंग ' अथवा ' ख्याल अंग ' की वादन शैली के प्रचार का श्रेय उस्ताद मिलायत खाँ साहब को है । उस्ताद विलायत खाँ की शिष्य परम्परा में आज गायकी अंग की चादन शैली को ही अपनाया जा रहा है । 

ठुमरी वादन शैली :- सितार की उपर्युक्त दो प्रमुख वादन शैलियों के अतिरिक्त ठुमरी अंग वादन का भी आज अत्यधिक प्रचलन हो रहा है । ठुमरी वादन में गायन की ठुमरी शैली की भान्ति सितार में भी ठुमरी वादन किया जाता है । गायन की ठुमरी की भान्ति वादन में भी तुमरी में स्थायी और अन्तरा प्रायः एक आवर्तन को लेकर विभिन्न प्रकार की मॉड , मुर्की , कण , जमजमा आदि के प्रयोग से भाव प्रदर्शन किए जाते हैं । स्वरों के लगाव में चंचलता प्रधान रहती है । प्रारम्भ में लय विलम्बित रखी जाती है और तबले पर दीपचन्दी ताल का प्रयोग किया जाता है । स्थायी अन्तरा में भाव प्रदर्शन के पश्चात् लय द्रुत करके छोटे - छोटे लय बद्ध टुकड़े , स्वर समूह तथा छोटी - छोटी तानों से वातावरण को अधिक चंचल बनाया जाता है । ठुमरी वादन में यह भाग ' लग्गी ' कहलाता है । लग्गी में तबले पर खेमटा या कहरवा ताल बजाई जाती है और तबला वादक को भी अपनी कला कुशलता को दिखाने का अवसर प्राप्त होता है । केवल थोड़ी देर तक लग्गी बजाने के पश्चात् तिहाई लगा कर लग्गी का समापन किया जाता है और स्थायी दोहरा कर ठुमरी वादन समाप्त कर दिया जाता है । 

धुन वादन शैली :- ठुमरी के अतिरिक्त , धुन वादन शैली भी आज सितार में पर्याप्त प्रचलित हो रही है । विभिन्न स्थानों के क्षेत्रीय लोक संगीत के आधार पर सितार में धुनों का वादन किया जाता है । जो कलाकार इस वादन शैली का बाखूबी प्रचार कर रहे हैं उनमें उस्ताद शुजात खाँ तथा देवव्रत्त चौधरी के नाम अग्रणी हैं । धुन वादन में शास्त्रीय नियमों का अधिक बंधन स्वीकार नहीं किया जाता । पीलू , झिंझोटी , मांड , इत्यादि रागों में , धुन अनुकूल कण , खटके , मुकियों , घसीट व ज़मज़मा इत्यादि क्रियाओं का प्रयोग किया के जाता है और उस क्षेत्र विशेष के वातावरण को उभारने की ओर अधिक बल दिया जाता है । इससे कई बार राग ' मिश्रित ' रूप धारण कर लेते हैं । धुन वादन में कहीं कहीं छोटे - छोटे स्वर समूहों को लेकर पुनः धुन के भावों को उभारना प्रत्येक श्रोता को आनन्द प्रदान करता है । 

उपर्युक्त समस्त विवरण से स्पष्ट है कि वाद्यों में स्वतन्त्र वादन की परम्परा प्राचीन है , परन्तु वादन शैलियों का विकास 18 वीं शताब्दी में प्रारम्भ हुआ । इसके साथ ही वादन विधि में चमत्कारी परिवर्तन हुए । आधुनिक काल में वादन सामग्री में और भी परिवर्तन हुए और गायकी अंग तथा ठुमरी व धुन वादन शैलियों का प्रादुर्भाव हुआ । वर्तमान समय में वाद्यों की इस उन्नत अवस्था का महान कारण , वादन शैलियों का विस्तार ही है ।