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मींड

मीण्ड उस क्रिया को कहते है जिसमें जब दो स्वरों का मिलाप, किसी बीच के स्वर का प्रयोग किए बिना ही किया जाता है अर्थात ध्वनि को बिना खण्डित किए हुए किया जाता है, उसे मीण्ड कहा जाता है । सितार वादन में एक स्वर के परदे से उससे अगले स्वर को उसी परदे पर तार को खींच कर ध्वनि को बिना खण्डित किए हुए बजाया जाता है, तो सितार में इस क्रिया को मीण्ड कहा जाता है । वादन की इस क्रिया को स्वर जोड़ भी कहा जाता है, अर्थात दो स्वरों को इस प्रकार जोड़ा जाता है कि दोनों स्वर अलग होने पर भी दोनों की ध्वनियों में अलगाव न हो । इसलिए इस क्रिया को वाद्य यन्त्रों में जोड़ कहते है ।
ध्वनि की तरलता तथा प्रवाहशीलता मीण्ड की प्रमुख विशेषता है । मीण्ड को संगीत शास्त्र में सफुरित कहा गया है ।
सितार के परदे पर बाएं हाथ की उंगली को रख कर दाएं हाथ से मिज़राब द्वारा तार पर आघात करना और फिर तार की ध्वनि को बिना खण्डित किए परदे पर रखी हुई बाएं हाथ की तर्जनी तथा मध्यमा उंगली से तार को उसी परदे पर दबाए हुए बाहर की और खींचना और उससे उत्पन्न स्वर पर ठहरने की क्रिया मीण्ड कहलाती है । मीण्ड की इस क्रिया को एक ही परदे पर कई स्वरों को बिना ध्वनि खण्डित किए निकाला जा सकता है । इस क्रिया प्रयोग के लिए अभ्यास और स्वर ज्ञान की आवश्यक्ता होती है । मीण्ड का चिन्ह स्वर लिपि में लिखते समय बताने के लिए स्वरों के ऊपर अर्ध-चन्द्राकार बनाते है । जैसे - सरे , सरेगमग अर्थात स के परदे से रे की ध्वनि को, तथा स के परदे से रेगमग के स्वरों की ध्वनि को बिना खण्डित किए निकालना अथवा बजाना अंकित किया गया है । स्वर के नीचे खड़ी रेखा का चिन्ह इस बात को अंकित करता है कि इस विशेष स्वर पर आघात करना चाहिए । मीण्ड दो प्रकार की मानी जाती है ।
अनुलोम मीण्ड और विलोम मीण्ड
अनुलोम मीण्ड :- अनुलोम मीण्ड क्रिया में बाएं हाथ की तर्जनी तथा मध्यमा उंगलियों को परदे पर तार को दबा कर रखा जाता है तथा मिज़राब के द्वारा बाज की तार पर दाएं हाथ से आघात करते हुए और बाएं हाथ की उंगलियों द्वारा तार को एक स्वर से दूसरे स्वर तक खींचा जाता है । इसे अनुलोम मीण्ड कहते है । इसे आरोही की मीण्ड या सीधी मीण्ड भी कहा जाता है ।
विलोम मीण्ड :- विलोम मीण्ड के अंतर्गत पहले बाएं हाथ से तार को खींच कर किसी निश्चित स्वर तक ले जाते है, तब दाएं हाथ से मिज़राब द्वारा तार पर आघात करते है । फिर तार को धीरे-धीरे छोड़ते हुए वापिस उसी स्वर के परदे पर साधारण अवस्था में ला कर उसी स्वर पर पहुँचना, जहां से तार को खींचा था, उसे विलोम मीण्ड कहते है । मीण्ड की इस क्रिया के लिए वादक को अयास की आवश्यक्ता होती है क्योंकि इस क्रिया में तार को बिना आघात किए खींचना पड़ता है, इसलिए वादक को जिस स्वर से विलोम मीण्ड लेनी है उस स्वर का अन्दाज़ा होना चाहिए ताकि सुनने में स्वर बेसुरा न लगे । वादक कलाकार को दोनों प्रकार की मीण्ड का अयास होना चाहिए ।
मीण्ड लेने की क्रिया वाद्यों की प्रकृति के अनुसार भिन्न होती है । मीण्ड कम से कम एक स्वर और यदि अच्छा सितार हो तो पांच स्वरों तक की मीण्ड खींची जा सकती है । आरोह तथा अवरोह दोनों तरह की मीण्ड का प्रयोग करने के लिए अच्छा स्वर ज्ञान होना चाहिए । सप्तक के सभी स्वरों का सबन्ध स से होता है इसलिए नियमित रूप से तार खींचने के उद्देश्य से जब भी कोई स्वर मीण्ड के लिए बजाना हो तो उससे तुरन्त पहले चिकारी का प्रयोग, दाएं हाथ की मिज़राब पहने उंगली या अनामिका के नाखुन से करना चाहिए ताकि स्वराधार मिलता रहे ।