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तिरोभाव - अविर्भाव

गाते अथवा बजाते समय कलाकार का मुख्य उद्देश्य जन मनोरंजन होता है । अपने इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु , कलाकार अपने गायन अथवा वादन को विभिन्न प्रकार की क्रियाओं से सुसज्जित करता है । गायन में विचित्रता पैदा करता है और श्रोताओं को आनन्द प्रदान करने के लिए प्रयत्नशील रहता है । गायन तथा वादन में विचित्रता पैदा करने के लिए वह तिरोभाव और अविर्भाव प्रक्रिया की सहायता लेते हैं । अतः देखना यह है कि तिरोभाव और अविर्भाव की प्रक्रिया क्या है ? 

तिरोभाव :- कलाकार गाते अथवा बजाते समय रागों में स्वर विचित्रता उत्पन्न करके , मूल राग को थोड़े समय के लिए छिपा देते हैं और किसी दूसरे राग का भ्रम उत्पन्न कर देते हैं । यह क्रिया ' तिरोभाव ' कहलाती है । तिरोभाव की क्रिया बहुत कम समय के लिए रागों में विचित्रता उत्पन्न करने के लिए की जाती है । इस से श्रोताओं के मन में एक प्रकार का भ्रम उत्पन्न हो जाता है कि प्रस्तुत किया जा रहा राग कौन - सा है ? तिरोभाव की क्रिया कुछ समय के लिए ही करने के पश्चात् गायक पुनः अपने मूल राग में आ जाता है । तिरोभाव अर्थात् मूल राग को छिपाने की क्रिया तीन प्रकार से की जाती है :

  • मूल राग में उसके समप्राकृतिक राग की छाया दिखाने पर । उदाहरण के लिए राग बसंत गाते समय यदि ' नि ' स्वर न्यास किया जाए , तो परज राग की छाया आ जाती है । जैसे- स ग म ध सं , मं धरें सं - बसंत । सं नि ध नि , ध प परज । इस प्रकार बसंत राग में परज की छाया , मारवा में सोहनी की छाया या किसी भी दो मिलते - जुलते रागों की छाया दिखाने से तिरोभाव हो जाता है । 

  • मूल राग में कुछ स्वर - समूह ऐसे लगा दिये जाते हैं , जिससे मूल राग छिप जाता है । उदाहरण के लिए राग बिलासखानी में भैरवी के स्वर समूह अथवा भैरवी में मालकाँस , चन्द्रकौंस के स्वर समूह लगा देने से , उस राग का तिरोभाव हो जाता है । जैसे- ग म ध नि सं रें सं नि सं ध प भैरवी । ग म ग स ग म ग मालकौंस । 

  • मूल राग में गाते बजाते समय मूर्छना भेद से किसी अन्य स्वर को ' स ' मान कर मूल राग के ही स्वर समूह गाते , बजाते रहने से किसी अन्य राग की झलक दिखाई देने लग पड़ती है और राग का तिरोभाव हो जाता है । जैसे - राग भैरवी में ' ग ' को ' स ' मान कर , यमन में ' नि ' को ' स ' मान कर अथवा जयजयवन्ती में ' म ' को ' स ' मान कर गाने से किसी अन्य राग का स्वरूप प्रतीत होने लग जाता है । 

इस प्रकार तिरोभाव की क्रिया से कुछ समय के लिए मूल राग छिप जाता है और राग में विचित्रता उत्पन्न हो जाती है , यह विचित्रता बड़ी आनन्ददायक प्रतीत होती है । तिरोभाव की क्रिया करने के लिए निम्नलिखित कुछ बातों का ध्यान रखना आवश्यक है : 

  • तिरोभाव की क्रिया कुशल गायक , वादनों द्वारा की जानी चाहिए । जब तक ऐसा करने का पूर्ण अभ्यास न हो जाये , यह क्रिया नहीं की जानी चाहिए । 

  • तिरोभाव की क्रिया करने से पूर्व मूल राग का स्वरूप भली - भान्ति कायम कर लेना चाहिए । मूल राग का स्वरूप स्पष्ट न होने की स्थिति में यदि तिरोभाव की क्रिया की जायेगी , तो किसी भी राग का स्वरूप कायम नहीं हो पायेगा और प्रस्तुत किये जा रहे राग का स्वरूप बिगड़ जाएगा । 

  • तिरोभाव की क्रिया बहुत कम समय के लिए की जानी चाहिए । बहुत देर तक इस क्रिया को करते रहने से मूल राग का प्रभाव नष्ट हो जाता है । 

  • तिरोभाव की क्रिया करने का उद्देश्य केवल सुन्दरता व विचित्रता पैदा करना होता है । थोड़ी देर तक यह क्रिया करने के पश्चात् पुनः मूल राग में वापिस आने पर उसका स्वरूप नहीं बिगड़ना चाहिए , बल्कि एकाएक ऐसे स्वर लिये जाने चाहिए , जिससे कि मूल राग तुरन्त पहचाना जा सके । 

अविर्भाव :- अविर्भाव की क्रिया , तिरोभाव की क्रिया के साथ ही की जाती है । राग में विचित्रता दा करने के लिए तिरोभाव और उससे तुरन्त पश्चात् अविर्भाव की क्रिया होती है । 

  • तिरोभाव की क्रिया करने के पश्चात् पुनः मूल राग में वापिस आ जाना , अविर्भाव कहलाता है । उदाहरण के लिए राग बसंत में परज की छाया दिखाने के पश्चात् धम ग में ग , म ध रें सं स्वर समूह लगाने से पुनः बसंत स्पष्ट हो जाता है । यह क्रिया अविर्भाव कहलाती है । अविर्भाव की क्रिया के लिए कुछ बातों का ध्यान रखना आवश्यक है । 

  • तिरोभाव की क्रिया करने के तुरन्त पश्चात् अविर्भाव होना आवश्यक होता है , नहीं तो मूल राग बिगड़ जाने का संदेह बना रहता है । अविर्भाव करते समय मूल राग के ऐसे स्वर समूह लिये जाने चाहिए , जिससे राग एकाएक स्पष्ट हो जाए और उसमें किसी भी अन्य राग का भ्रम उत्पन्न न हो । 

  • तिरोभाव और अविर्भाव की यह प्रक्रिया इस प्रकार चलती है कि पहले जो राग प्रस्तुत किया जा रहा हो उसे स्पष्ट किया जाता है , फिर थोड़े समय के लिए किसी अन्य राग की छाया से तिरोभाव किया जाता है और पुन : मूल राग में वापिस आया जाता है । यह समस्त प्रक्रिया बड़ी मनोरंजक और आनन्ददायक प्रतीत होती है ।