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उस्ताद हाफिज़ अली ख़ाँ


जन्म और संगीत शिक्षा 

बीसवीं शताब्दी के पूर्वाध के महान् सरोद वादक उस्ताद हाफिज़ अली ख़ाँ एक परानेदार सरोद वादक थे । उनके पिता नन्हें ख़ाँ और दादा गुलाम अली ख़ाँ थे । दादा गुलाम अली खाँ बंगश ( काबुल ) के रहने वाले थे । वहीं से अपना काबुली वाद्य लेकर हिन्दुस्तान आये और इस वाद्य की भावुकता पर विचार करके उसे हिन्दुस्तानी संगीत के लिए उपयुक्त बनाया और उसे सरोद में परिवर्तित किया । अपनी भारत यात्रा के दौरान गुलाम अली ख़ाँ ने बहुत से स्थानों का भ्रमण किया । ग्वालियर और नवाब फरूखाबाद के पास रहे और अपने समय के बेजोड़ और प्रतिभाशाली सरोद वादक भाने गए । गुलाम अली खाँ के पुत्र नन्हें ख़ाँ और मुराद अली प्रसिद्ध सरोद वादक भने । नन्हें खाँ ग्वालियर और रामपुर के दरबारी संगीतज्ञ थे । ग्वालियर में ही सन् 1888 ई ० में उस्ताद नन्हें ख़ाँ के घर हाफिज़ अली ख़ाँ का जन्म हुआ । 

उस्ताद हाफिज़ अली खाँ ने नौ वर्ष की अल्पायु में ही पिता से संगीत की शिक्षा लेनी प्रारम्भ की । पिता की मृत्योपरान्त वृन्दावन के ध्रुपद गायक गणेशी लाल से ध्रुपद की शिक्षा हासिल की । साथ ही सरोद वादन का भी विशेष अभ्यास किया और महान् सरोद वादक के रूप में ख्याति अर्जित की । आपके सरोद वादन पर मुग्ध होकर ग्वालियर नरेश श्रीमंत माधवराव दरबार में आपकी नियुक्ति हुई और तत्पश्चात् जीवाजीराव महाराज के दरबार में भी आप रहे । उच्चकोटि के वादकों में उस्ताद हाफिज़ अली खाँ एक ही थे , जिनका हाथ और कंठ एक समान सुरीला था । ऐसी विशेषता बहुत कम कलाकारों में मिलती है । 


वादन शैली 

उस्ताद हाफिज़ अली खाँ की सृजनात्मक कल्पना बेजोड़ थी । कोई भी वादक कितना भी अनुभवशील क्यों न हो , बिना सृजनात्मक कल्पना के वह अपनी कला को सुन्दर और श्रेष्ठ नहीं बना सकता । 

आपके सरोद वादन में बुद्धि के चमत्कार की अपेक्षा भावुकता की प्रधानता रहती थी । यही कारण है कि वह अपने सरोद की छेड़ ही आरम्भ करते थे , तो श्रोताओं को एक दम अत्यन्त भावुकता का आभास होता था । उनके सुनने वालों का कहना है कि हाफिज़ अली ख़ाँ इतना मीठा सरोद बजाते थे कि मानो उनकी अँगुलियाँ शहद में डूबी हुई हों । उनका सरोद वादन इतना मधुर था कि मानो उन्होंने सरोद के लिए हो जन्म लिया हो । वह जो भी बजाते थे , उसमें पूर्ण भावुकता होती थी । वह स्वभाव से ही बहुत भावुक और सुहृदय थे । कभी - कभी किसी छोटी संगीत महफिल में अपने सुरीले कंठ से ' जिन मारो पिचकारी ' बड़े भावुक हो कर गाने लग जाते थे या किसी दादरे के बोल को बड़े मज़े से गाने लग जाते थे । इसी प्रकार उनके सरोद वादन में किसी दिमागी कसरत की अपेक्षा भावों की गति अधिक थी । 

उस्ताद हाफिज़ अली खाँ के वादन में उस्तादी रंग और लोकप्रिय संगीत - दोनों का सुन्दर मिश्रण था । यदि वह सरोद पर ठुमरी या कोई धुन छेड़ देते थे , तो श्रोताओं को बेचैन कर देते थे । यहाँ तक कि कभी - कभी किसी संगीत सम्मेलन में राग वादन के पश्चात् सामान्य श्रोताओं के लिए ' बैण्ड ' की धुन बजाकर उनका मनोरंजन करते थे और उनका दिल जीत लेते थे परन्तु जब किसी संगीत मर्मज्ञों की महफिलों में वह रागालाप आरम्भ कर देते , तो दो घण्टे तक अपनी अनूठी कला कुशलता का प्रदर्शन करके उन्हें व्याकुल कर देते थे । उनके राग विस्तार में मौलिकता होती थी , जो भाव और कल्पना पर आधारित थी । उस्ताद हाफिज़ अली के सरोद वादन में इन गुणों का प्रदर्शन होता था । यही कारण था कि एक भावुक और सुहृदय श्रोताओं से अपनी कला की भावना का संवाद करते थे । उनके कला प्रदर्शन में सभा चातुर्य के निराले गुण थे । 

उस्ताद हाफिज अली ख़ाँ , रामपुर के फिदाहुसैन के सरोद वादन से बहुत प्रभावित थे और उनको अपना सर्वोच्च आदर्श मानते थे । उस्ताद हाफिज़ अली ख़ाँ , उस्ताद वजीर ख़ाँ बीनकार के शिष्य अवश्य थे परन्तु एक सुहृदय कलाकार होने के कारण वे फिदा हुसैन के सरोद से बहुत प्रभावित थे । इसी प्रकार वे चुन्नू खाँ जैसे भावुक सरोदीये से भी प्रभावित हुए और उनकी प्रशंसा करते थे । 

उस्ताद हाफिज़ अली खाँ की यह निजी विशेषता थी कि वह गुणीजनों के गुणों की प्राय : चर्चा करते थे । संगीत चर्चा में भी उनकी बड़ी रुचि थी । संगीत क्रिया के भेदों को जानने के लिए उनकी प्रबल इच्छा होती थी । अप्रचलित रागों और प्रसिद्ध ध्रुपदों की रचनाओं का उन्हें बड़ा शौक था । रागों , ध्रुपदों , बंदिशों व गतों का उनके पास विशाल संग्रह था । वह इतने सुहृदय थे कि किसी के गले या हाथ में कोई अच्छी बात उन्हें नज़र आती , तो उसकी प्रशंसा किये बिना नहीं रहते थे । जब वह किसी के स्वर की , किसी की मींड की , किसी की गमक की , किसी की सपाट तानों की , किसी की लयकारी की प्रशंसा करते थे , तो उनकी वार्तालाप बड़ी मनोरंजक प्रतीत होती थी और उनकी बातचीत से मानो संगीत का इतिहास आँखों के सामने घूमने लगता था । उनके जीवन काल में ऐसे सुअवसर सैकड़ों भाग्यशालियों को प्राप्त हुए हैं । 


सम्मान व उपाधियाँ 

उस्ताद हाफिज़ अली ख़ाँ को अपने जीवन में अनेक सम्मान व उपाधियों से अलंकृत किया गया था । 

सन् 1953-54 में आपको ' सर्वोत्तम संगीतकार ' घोषित किया गया और राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ ।

सन् 1953 में दिल्ली में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार ' प्राप्त हुआ । 

सन् 1960 में भारत सरकार की ओर से ' पद्म भूषण ' की उपाधि से सम्मानित किया गया । 


शिष्य परम्परा 

उस्ताद हाफिज़ अली ख़ाँ के अपने सुपुत्र मुबारक अली और अमज़द अली ने आपकी शैली का प्रतिनिधित्व किया । उस्ताद अमज़द अली आज देश के श्रेष्ठ सरोद वादक हैं और इस घराने की वादन शैली के द्वारा संगीत जगत को मन्त्रमुग्ध कर रहे हैं । उस्ताद अमज़द अली ख़ाँ को सन् 1975 में ' पद्म श्री ' से सम्मानित किये जाने के पश्चात् राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के अनेक उच्च अलंकरणों द्वारा सम्मानित किया गया । सन् 2000 में आपको ‘ पद्म विभूषण ' से सम्मानित किया गया है । उस्ताद अमज़द अली ख़ाँ के दोनों सुपुत्र अमान और आयान , आज उस्ताद हाफिज़ अली ख़ाँ की चलाई सरोद वादन की परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं । 


निधन 

उस्ताद हाफिज़ अली ख़ाँ का निधन लगभग 95 वर्ष की दीर्घायु जीने के पश्चात् 29 दिसम्बर , सन् 1972 में हुआ । उनकी स्मृति में प्रतिवर्ष उनके सुपुत्र उस्ताद अमजद अली खाँ संगीत समारोह का आयोजन करते हैं और नयी प्रतिभाओं को कला प्रदर्शन का सुअवसर प्रदान करते हैं ।