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संगीत में लय और ताल का महत्व


ताल स्तल प्रतिष्ठायामिति धातोत्रि स्मृतः 

गीतं वाद्यं तथा नृतं यतस्ताले प्रतिष्ठितम् 

( संगीत रत्नाकर , तालाध्याय , पृष्ठ 3 ) 

' संगीत रत्नाकर ' ग्रन्थ के उपर्युक्त श्लोकानुसार गायन , वादन तथा नृत्य कला की प्रतिष्ठा ताल से ही होती है , अर्थात् वह ताल के साथ ही भले प्रतीत होते हैं । वास्तव में ताल के बिना गाना बजाना बिल्कुल फीका लगता है । ताल से गायन वादन तथा नृत्य में जान पड़ जाती है और संगीत आनन्ददायक और प्रभावशाली बन जाता है । यही कारण है कि ताल का भी संगीत में उतना ही महत्वपूर्ण स्थान माना गया है , जितना कि स्वर का । 

लय :- स्वर और ताल संगीत के यह दो आधार हैं । स्वर का आधार ' श्रुति ' , ताल का आधार ' लय ' है । संगीत में लय का महत्व दर्शाते हुए कहा गया है : 

श्रुति माता लयः पिता 

अर्थात् संगीत में ' श्रुति ' यदि माता के समान है , तो लय पिता के समान है । लय , समय की एक निरन्तर गति , चाल अथवा काल की क्रमिकता को कहा जाता है । लय सर्वव्यापक है । केवल संगीत में ही नहीं बल्कि प्रकृति एवं मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में लय विद्यमान है । वास्तव में समस्त सृष्टि का संचालन लय के द्वारा ही होता है । सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक , चाँद , नक्षत्र , मौसम , दिन , रात्रि , महीने , वर्ष इत्यादि निरन्तर गति से चलते रहते हैं । मनुष्य के जीवन में भी एक नियमित प्रकार की लय मौजूद है । हृदय की गति का चलना , साँस लेना , चलना फिरना , बोलना इत्यादि जीवन संचार के सभी स्त्रोतों में लय ही है । यदि यूँ कहा जाए कि लय अथवा काल की क्रमिकता , सृष्टि के कण - कण में विद्यमान है , तो कोई अतिश्योक्ति न होगी । 

ताल :- संगीत में काल की नियमित गति अथवा लय , ' ताल ' को जन्म देती है । ताल काल क्रिया मानम् ' अनुसार समय के मापने को ' ताल ' कहा जाता है । संगीत में गायन , वादन तथा नृत्य की क्रियाओं में जो समय ( काल ) लगता है , उसके मापने के साधन को ' ताल ' कहा जाता है । दूसरे शब्दों में ताल , काल को मापने का पैमाना है । काल ( समय ) के मापने की सबसे छोटी ईकाई 'मात्रा' है । भिन्न - भिन्न मात्राओं के समूह से विभिन्न तालों की रचना होती है । जिस प्रकार सेकेण्ड से मिनट , मिनट से घंटे तथा घण्टों से दिन रात बनते हैं , उसी प्रकार भिन्न - भिन्न मात्राओं को ताल बना है । 

संगीत का अनुशासक ताल ताल :- संगीत को संचालित करना है । ताल का निर्धारण होने से गायक , वादक बंध जाते हैं और उनके लिए दाल का निर्वाह करना आवश्यक हो जाता है । ताल संगीत को , एक निश्चित् नियम या रसमय के बंधन में बाँधता है । ताल हीन विश्रृंखल संगीत में सार्थकता नहीं होती । ग्रन्थों में ताल के बिना गायन , वादन गर्व की तुलना मदमस्त हाथी से की गई है और ताल की अंकुश की उपमा दी गई है । जिस प्रकार बिना पतवार के नाव होती है , वही दशा लाल विहीन संगीट की होती है।'ताल ' संगीत को अनुशासित करके उसके सुगठित रूप , स्थायित्व एवं चमत्कारिता से श्रोताओं को विभोर कर देता है । 

शास्त्रों में शास्त्रीय संगीत के दो प्रकार माने गए हैं- ' अनिबद्ध ' अथवा अताल ( बिना ताल के ) और ' निबद्ध ' अथवा सताल ( ताल सहित ) अनिबद्ध संगीत के अन्तर्गत ध्रुपद गायन से पूर्व नीम् तोम् का अलाप , ख्याल गायन से पूर्व ' आकार ' द्वारा अलाय तथा सितार इत्यादि वाद्यों में गत से पूर्व बजने वाला अलाप , जौढ़ , झाला इत्यादि माते हैं । बंदिश अथवा गत प्रारम्भ हो जाने के पश्चात् अलाप - तान आदि सभी ' निबद्ध ' होते हैं । अर्थात् उनका निर्वाह ताल के द्वारा होता है । अतः संगीत में ताल पक्ष यदि स्वर पक्ष अथवा राग पक्ष से अधिक नहीं तो उसके समान रूप से महत्वपूर्ण आवश्यक है । 

संगीत का प्राण ताल :- जिस प्रकार मानव शरीर की रचना के लिए अस्थि , पंजर और प्राण आवश्यक हैं , उसी प्रकार शास्त्रीय संगीत के लिए ताल की अनिवार्यता है । संगीत वा संरचना अथवा बंदिश , शास्त्रीय संगीत का केवल शरीर मात्र हैं परन्तु ताल उनमें प्राणों का संचार करता है । ताल स्वर को गति प्रदान करता है और राग के प्रभाव को उभारने में सहायक होता है । जब किसी राग में अलाप , तान , बोल तान , सरगम तथा लयकारियों द्वारा विस्तार किया जाता है , तो ताल में भी उसी अनुरूप कायदै , पैशकार , तीये , पान , आढ़ , कुआड़ आदि लयकारियों का प्रयोग किया जाता है । इससे केवल चमत्कार प्रदर्शन ही नहीं होता , बल्कि आनन्द की सृष्टि होती है । 

आनन्दानुभूति में ताल का योग :- संगीत के मूल लक्ष्य आनन्दानुभूति अथवा आनन्द की प्राप्ति में ताल सहायक सिद्ध होता है । केवल ताल वाद्य का वादन सुनते समय ही स्वतः हाथ , पैर , सिर हिलने लगते हैं अथवा ताल गति का अनुसरण करने लगते हैं । ताल द्वारा आनन्दानुभूति का प्रत्यक्ष प्रदर्शन बच्चों में देखा जा सकता है , जो ताल की थाप पर नि : संकोच नाचने लगते हैं । इस प्रकार ताल की पृष्ठ भूमि संगीत के प्रभाव में वृद्धि करती प्रतीत होती है । अत : भारतीय संगीत में लय अथवा ताल की इतनी प्रधानता कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है । 

रसानुभूति में ताल का योग :- संगीत के द्वारा रसानुभूति में भी ताल का योग स्वर के समान है । हम राग भाव की चर्चा करते हैं , जिससे अभिप्राय उस ' भाव ' विशेष से है , जिसके द्वारा राग में आवश्यक लालित्य एवं आकर्षण की निष्पत्ति होती है । राग की भान्ति प्रत्येक ताल का भी अपना भाव अर्थात् विशेषताएँ होती हैं , प्रायः लोग इस ताल - भाव ' की उपेक्षा करते हैं । जिस प्रकार रागों की प्राकृति गम्भीर , चंचल और शान्त होती है , उसी प्रकार तालों की भी प्राकृति गम्भीर , चंचल और शान्त होती है । उदाहरण के लिए तिलवाड़ा , विलम्बित एक ताल , चार ताल और धमार ताल इत्यादि गम्भीर प्राकृति की तालें हैं । चूँकि प्रत्येक ताल की अपनी प्राकृति अथवा अपना अपना प्रभाव होता है , अतः विभिन्न गायन शैलियों में उन्हीं के अनुरूप तालों का प्रयोग किया जाता है । उदाहरण के लिए : 

ध्रुपद अंग के ताल चार ताल, आड़ा चौताल, सूल ताल, धमार, तीव्रा आदि । 

ख्याल अंग के ताल तिलवाड़ा , एक ताल , झूमरा आदि । 

ठुमरी अंग के ताल दीपचन्दी , अद्धा तीन ताल , जत्तताल आदि । 

टप्पा अंग के ताल पंजाबी , जत्तताल आदि । 

सुगम संगीत के ताल कहरवा , दादरा , रूपक , धुमाली , पश्तो आदि । 

चार ताल और धमार ताल द्वारा वीर , रौद्र और अद्भुत रसों की उत्पत्ति होती है । एक ताल , झूमरा ताल और तिलवाड़ा के द्वारा शान्त , श्रृंगार तथा करुणा रस की उत्पत्ति होती है और तीन ताल , झप ताल , रूपक , दादरा , कहरवा आदि तालों के द्वारा श्रृंगार रस की उत्पत्ति होती है । तालों के अनुकूल ही शास्त्रीय संगीत में पखावज , तबला आदि ताल वाद्यों का उपयोग किया जाता है । रस सृष्टि में तालों का इतना योग माना गया है कि तालों में गति भेद उत्पन्न करने से भी रस निष्पत्ति सम्भव होती है । करुणा , श्रृंगार , रौद्र , वीभत्स इत्यादि रसों की उत्पत्ति के लिए तालों की विभिन्न गतियों का बड़ा महत्व है । ताल में गति परिवर्तन रस ( भाव ) को भी परिवर्तित कर देता है । यदि मध्यलय प्रधान ताल को विलम्बित लय में प्रस्तुत किया जाए तो उसकी प्रतिक्रिया सर्वथा भिन्न होगी और उसके भाव अथवा रस में भी अन्तर आ जाएगा । 

हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति में तो रागों के सम्बन्ध में यह सम्भावना भी स्वीकार की जाती है कि किसी बंदिश को , जो किसी राग के भाव को व्यक्त करती है , यदि उससे अधिक विलम्बित अथवा भिन्न गति में गाया जाए , तो वही बंदिश अन्य भावों को व्यक्त करने लगती है । कुछ रचनाएँ मध्य लय की होती हैं , तो मध्य लय ही उन रचनाओं के अधिक अनुकूल होती है । इसी प्रकार हम विलम्बित लय की रचना और द्रुत लय की रचना को भी सही लय में गायें , तो अनुकूल रस की सृष्टि होती है । यदि किसी विलम्बित लय की रचना को मध्य लय में तथा मध्य लय की रचना को द्रुत लय में गाया जाए तो वह उतनी भावोत्पादक नहीं हो सकती । इस प्रकार रस सृष्टि में तालों का बड़ा योग माना गया है । अत : किसी भी संगीत रचना में राग , ताल और काल प्रमाण में संतुलन परमावश्यक है । शास्त्रों में तालयुक्त गायन वादन को ही मोक्ष का मार्ग माना गया है : 

वीणा वादन तत्वज्ञ श्रुति जाति विशारदः । 

ताल ज्ञश्चप्रयासेन मोक्षमार्ग च गज्छति ॥ 

( याज्ञवल्क्य स्मृति ३/११५ ) 

शास्त्रीय संगीत के अतिरिक्त सुगम संगीत , फिल्मी संगीत , लोक संगीत में भी ताल का उतना ही महत्वपूर्ण स्थान है । वृन्दवादन की रचनाएँ भी ताल और राग के विभिन्न रूपों पर आधारित होती हैं । यहाँ तक कि कोई भी संगीत कार्यक्रम ताल के बिना अधूरा प्रतीत होता है । विद्वानों ने कहा है कि स्वर और ताल संगीत रूपी गाड़ी के दो पहिए हैं । यदि इसे पुनः यहाँ दोहराया जाए तो इस में कोई अतिश्योक्ति नहीं , बल्कि वास्तविकता प्रकट करना होगा ।