Translate

मिज़राब के बोल


आजकल प्रायः एक मिज़राब से ही सितार वादन किया जाता है, किन्तु पुरानी पीढ़ी के कलाकार तर्जनी तथा मध्यमा उंगली में दो मिज़राब पहन कर वादन करते थे ।
मिज़राब के आघात द्वारा उत्पादित (ध्वनित) बोल :- तन्त्री वाद्यों पर विभिन्न प्रकार के प्रहारों को संगीत की भाषा में बोल कहते है । मिज़राब की सहायता से सितार वादक अथवा सुरबहार वादक दो तरह के आघात करते है । आकर्ष प्रहार और अपकर्ष प्रहार ।
सितार पर मिज़राब द्वारा आघात करने पर मुख्य बोल दा और रा दो बोल निकलते है । मूलरूप से इन बोलों को दे और रु के नाम से भी जानते है । दे का अर्थ आह्‌वान अर्थात आने का आमन्त्रण और रु का अर्थ पर्ति था । इसका उद्देश्य सर्वशक्तिमान का आह्‌वान करना था । इन दोनों बोलों को पहले दा की अपेक्षा डाऔर रा की अपेक्षा ड़ा कहा जाता था ।
मिज़राब द्वारा उत्पन्न बोल दा :- मिज़राब युक्त तर्जनी उंगली से जब तार पर बाहर से अन्दर की ओर अर्थात अपनी ओर प्रहार करने पर जो ध्वनि या बोल बनता है, उसे दा का बोल कहते है । इसे आकर्ष प्रहार कहा जाता है ।
मिज़राब द्वारा उत्पन्न बोल रा :- मिज़राब युक्त तर्जनी उंगली से जब तार पर अन्दर से बाहर की ओर अर्थात अपने से विपरीत दिशा में प्रहार करने पर जिस बोल की उत्पति होती है उसे रा कहते है । इसे अपकर्ष प्रहार भी कहा जाता है ।
इन दोनों बोलों के सहयोग से अन्य कई प्रकार के बोल बनाए जा सकते है । जोकि क्रमशः एक मात्रा, डेढ़ मात्रा, एक चौथाई मात्रा काल में बनाए जाते है, जिन्हे क्रमशः दारा अथवा दिर, द्रा, दाsरा, द्राss, दाssर के नाम से जाना जाता है ।
दा रा अथवा दिर :- दा और रा को प्रायः लगभग एक-एक मात्रा काल का बोल माना गया है । दा और रा के बोल को द्रुत लय में न बजा कर केवल मध्य लय में एक मात्रा काल में ही मिज़राब द्वारा आघात करने से दारा का बोल बनता है और इसी प्रकार यदि दा रा को द्रुत लय में जल्दी से अर्थात एक मात्रा काल में दोनों बोलों को एक साथ बजाने से दिर बोल बन जाता है । आज की अपेक्षा दिर बोल को पहले डिड़, दिड़ तथा डिरी भी कहा जाता था । जिसका प्रयोग दो स्वरों या एक ही स्वर को दो बार बजाने के लिए किया जाता है ।
दाsरा :- जब दा प्रहार को एक मात्रा में बजाएं तथा उसके साथ ही रा के बोल को केवल आधी मात्रा में बजाएं तो मिज़राब द्वारा दाsरा के बोल की उत्त्पति होगी । सामान्यता इस डेढ़ मात्रिक बोल को दो बार प्रयुक्त किया जाता है । दो बार बजाने से इस का मात्रा काल तीन मात्रा का हो जाता है जैसे दाs रदा sर अर्थात मिज़राब के चार बोलों को तीन मात्रा काल में रखा जाता है । इस प्रकार के बोल प्रायः रज़ाखानी गत अर्थात्‌ द्रुत गत की बंदिशों में, तोड़ो में या मिज़राबकारी में प्रयुक्त किया जाता है ।
द्रा :- जब दा और रा के बोलों को चौथाई मात्रा में बजाऐं या दिर बोल को ही आधी मात्रा में बजाऐं तो मिज़राब के इस प्रकार आघात करने से द्रा बोल की उत्पति होती है । इस बोल को सफाई या सुन्दरता से निकालने के लिए काफी अभ्यास की आवश्यक्ता होती है । कुछ लोग द्रा बजाने के लिए तर्जनी व मध्यमा दोनों में मिज़राब पहन कर बाज के तार पर इस प्रकार प्रहार करते है कि पहले मध्यमा उंगली की मिज़राब बाज पर पड़े और तुरन्त ही तर्जनी की भी मिज़राब बाज पर पडे़ तब द्रा बोल का बोध होता है ।
द्राssर :- दा और रा के एक चौथाई मात्रा काल में बजाने के बाद में आधी-आधी मात्रा काल को दर्शा कर रा को भी एक चौथाई मात्रा काल में बजाना होता है अर्थात द्रा को बजा कर फिर रा के बोल का आघात आधी-आधी मात्रा काल के बाद ही लगाया जाता है । ऐसे बोल को द्रुत गति के साथ ही करते है । जिससे द्राssर के बोल की ध्वनि सुनाई देती है ।
उपरोक्त मिज़राब के बोलों से ही अन्य कई प्रकार के बोलों तथा छन्दों की रचना की जाती है । जैसे द्रे, द्रा s, डेरा s, ददाs, द्रेदाsर इत्यादि मिश्रित बोल बन सकते है जोकि विभिन्न प्रकार की लयकारियों में दर्शाए जा सकते है ।
लयकारी के बोध में मिज़राब का योगदान :- अगर लय को थोड़ा बड़ा दिया जाए तो दा और रा जो एक-एक मात्रिक काल में बजते है अतः इन दोनों बोलों को यदि एक ही मात्रा में बजा दिया जाए तो दोनों के योग से दिर का बोल जोकि मिज़राब के आकर्ष तथा अपकर्ष प्रहार करने से बनता है । अतः इस क्रिया में हमें दुगुण लय का आभास होता है । इसके बाद मिज़राब के आघात के प्रयोग से दा के बोल को दो बार बजाने के बाद रा के बोल का प्रयोग करने से दा दा रा के बोल बनाए जा सकते है अर्थात्‌ दो बार अपनी तरफ सीधा आघात और एक बार बाहर की तरफ उल्टा आघात । इन बोलों को भी एक-एक मात्रा में बजाया जा सकता है जैसे दा दा रा । यदि इन तीन बोलों को एक ही मात्रा में बजाया जाए तो तिगुण लयकारी का आभास होता है ।
तत्पश्चात मिज़राब के बोलों के विकास क्रम में पहले दा के बाद दूसरे व तीसरे बोलों की गति बड़ाने पर यानि दूसरे और तीसरे बोल दा और रा को पहले बोल की अपेक्षा दुगुणा तेज़ बजाया जाए तो इस सामुहिक बोल से दा दिर का बोल बनता है । अतः इस दा दिर के बोल की सहायता से चार मात्राओं का एक छन्द बनाया जाता है जिसे दा दिर दा रा कहा जाता है ।
मिज़राब के बोलों के क्रम बधता के अगले चरण में दा को एक मात्रा में बजाने तथा रा को आधी मात्रा में बजाने पर कुल डेढ़ मात्रा का बोल दा - र बना । इसी प्रकार यदि इस बोल को दो बार दा- र दा -र बजाए तो तीन मात्राएं बनेंगी । अतः तीन मात्रा काल में चार बोलों को बजाने से आड़ी लयकारी का आभास होता है । जैसे दा- र दा -र इसे आड़ी लयकारी कहा जाता है ।
चार मात्राओं के छन्द में दा दिर दिर दिर के साथ अगर आड़ी लयकारी का बोल दा - र दा -र जोड़ कर अन्त में दा का बोल जोड़ दिया जाए तो आठ मात्राओं का यह बोल इस प्रकार बन जाएगा दा दिर दिर दिर दा- र दा -र दा ।
अतः इस प्रकार मिज़राब को लयकारी तथा छन्द के आधार पर भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रयोग किया जा सकता है ।