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सितार की बनावट

सितार की बनावट :- सितार के विकास में पूर्व प्रचलित वाद्य त्रितन्त्री वीणा को आधार मान कर किया गया है तथा जिसमें कुछ परिवर्तन करके उसका नाम सेहतार रखा गया था । सेहतार की डाण्ड लबी होती थी । इसके साथ लकड़ी का ध्वनि उत्पादक यन्त्र लगाया जाता था, जिसे आजकल हम तूबा के नाम से जानते है । लकड़ी के बने इस ध्वनि उत्पादक यन्त्र से आवाज़ की गहराई भी होती थी । डांड के उपर सारिकाएं बांधने का प्रचार था । ध्वनि उत्पादक को एक लकड़ीनुमा ढक्कन से ढका जाता था, जिसे आज कल तबली के नाम से जाना जाता है । इस तबली के उपर घुड़च रखा जाता था, जिस पर से तारें गुज़र कर खूंटियों की और जाकर बांधी जाती है ।

सितार प्रायः दो प्रकार के बनते थे । एक वह सितार, जिसमें मुख्य सात तारों के अतिरिक्त, तरब की तारें नहीं होती थी । ऐसी सितारें सादा सितार कहलाती थी । दूसरे प्रकार की वह सितार जोकि तरब युक्त होती थी तथा उन सितारों को प्रायः शिक्षक तथा कलाकार ही बजाते थे । सादा सितार प्रायः विद्यार्थी वर्ग के लिए उपयुक्त माना जाता था । किन्तु आजकल सभी सितार तरबयुक्त ही बनती है ।

सादे सितार की अपेक्षा तरबयुक्त सितार थोड़ा बड़ा होता है । सादे सितार की अपेक्षा तरब युक्त सितार की ध्वनि अपेक्षाकृत अधिक कर्णप्रिय, आंसदार तथा मीण्ड, खटका, मूर्की आदि के लिए अधिक उपयुक्त होती है ।

सितार के भाग :- सितार की बनावट या ढांचा तैयार करने में निम्नलिखित भागों का योगदान रहता है, तत्पश्चात उन भागों के सहयोग से एक सुन्दर सा सितार बनकर तैयार होता है । सितार में मुख्य भाग तूबा, तबली, गुल्लू और डांड तथा अनेक उपभाग खूंटियां, जवारी, लंगोट, पत्ता इत्यादि होते है ।

तूबा :- आधुनिक बनावट में बड़े तूबे की सितार का प्रचार नही है । सितार वादन की शैली पर पहले सुरबहार की शैली का भी प्रभाव था, क्योंकि उस समय प्रायः ध्रुपद और धमार अंग के आलाप का ही प्रचार था तथा वह सुरबहार पर ही हो सकता था, तथा गतकारी, सितार पर होती थी । इसलिए उस समय आलाप की गभीरता को बनाए रखने के लिए सितार में बड़ा तूबा प्रयुक्त किया जाता था । आजकल प्रायः छोटे तूबे की सितार का प्रचार है । उसके साथ तबली का आकार भी छोटा हो गया है । तूबा जंगली लौकी या कद्‌दू का होता है, जो पक कर बड़े आकार का बन जाता है । तूबा यदि प्राकृतिक गोल हो तो अच्छा होता है । परन्तु यदि गोल न हो, तो उसे काट कर गोल कर लिया जाता है । तूबा बीच में से खोखला होना चाहिए । तूबे के बीच में गुद्‌दा या अन्य कोई चीज़ नही होनी चाहिए, क्योंकि यदि वह ठोस और साफ होगा, तो आवाज़ टकरा कर साफ सुनाई देगी । यदि कोई गुद्‌दा या अन्य चीज़ रह जाएगी तो आवाज़ इससे ही टकराएगी जिस कारण आवाज़ इतनी प्रतिध्वनित नही होगी ।

सितार की गूंज में वृद्धि करने के लिए सितार के बांयी और भी छोटा तूबा कलश के आकार का खूंटियों की और लगाया जाता था । खूंटियों की तरफ पीछे की और छोटा तूबा लगाने की प्रथा में बीन का प्रभाव दिखाई देता है । बीन की भव्यता को सितार की आकृति में लाने के लिए ऐसा किया गया । कुछ लोगों के अनुसार इस तूबे के लगाने से सितार की ध्वनि गुंजन में अन्तर पड़ता है ।

तबली :- तबली तूबे के उपर लगी होती है, जोकि एक ढक्कन का काम करती है । इस का आकार पान के पत्ते कि तरह का होता है । यह एक ही लकड़ी की बनी होनी चाहिए । इसके लिए ‘तुन’ वृक्ष की लकड़ी का अधिकतर प्रयोग किया जाता है । क्योंकि इस लकड़ी में कीड़ा नही लगता और इस लकड़ी के बीच कोई गांठ या जोड़ नही होना चाहिए । तबली की मोटाई प्रायः एक सूत या डेढ सूत होनी चाहिए । तबली प्रायः साढे बारह इंच से चौदह इंच तक चौड़ी होती है । तबली तूबे के खुले भाग की नाप के अनुरूप बनाई जाती है तो कभी तबली के नाप के अनुरूप तूबा काटा जाता है । इसकी लकड़ी सूखी तथा शुष्क होनी चाहिए । भीतर से इसकी तराश बड़ी सावधानी से की जाती है । क्योंकि सितार की अच्छी ध्वनि, बहुत कुछ तबली पर ही निर्भर है । तबली की मोटाई बहुत कम भी नही होनी चाहिए । क्योंकि यदि मोटाई कम होगी तो तारों का दबाव अधिक होने से तबली बैठ जाएगी, तबली को अन्दर की तरफ से गहराई में तराशा जाता है और उपर की और से केंद्र भाग से थोड़ी उभरी होती है ।

गुल्लू :- तूबे और डाण्ड को मिलाने वाले भाग को गुल्लू कहते है । गुल्लू को गला या गर्दन भी कहा जाता है । इसकी लकड़ी तुन या आम के वृक्ष की हो सकती है । परन्तु यदि तुन की लकड़ी का गुल्लू बनाया जाए तो अधिक अच्छा होता है । इसकी लकड़ी त्रिकोणी होती है, जिसे अन्दर और बाहर दोनों और से खोदा जाता है । गुल्लू तूबे के उस जगह में लगाया जाता है जिस और डाण्ड का सबन्ध होता है, गुल्लू को पहले तूबे से जोड़ते है । फिर उसमें डाण्ड को गुल्लू में डाल कर उपर से तबली को जोड़ देते है । सितार का यह जोड़ अपना विशेष महत्व रखता है ।

डाण्ड :- यह सितार का वह भाग है जिसमें परदें, खूंटियां इत्यादि होते है । अच्छी सितार के सपूर्ण ढांचे के लिए तुन की लकड़ी ही उपयोगी होती है । क्योंकि इसमें कीड़ा नही लगता । डाण्ड की लकड़ी भी शुष्क तथा सूखी होनी चाहिए ताकि वह टेड़ी न हो जाए । डाण्ड के उपरी भाग डाण्ड का ढक्कन (पत्ता) जिसके उपर परदें लगे होते है तथा पीछे का भाग जिस पर परदों को बांधने के लिए तांत या डोरी लगी होती है, दोनों अलग-अलग भाग होते है । जिन्हे आवश्यकता अनुसार खरादा एवं तराशा जाता है । डाण्ड का उपर का हिस्सा शीर्ष स्थान कहलाता है, जिसके उपर पाँच खूंटियां लगी होती है । इन खूंटियों से पहले अन्तमेरु या अट्टी, तारदान इत्यादि उपभाग होते है । बाकी हिस्से अर्थात डाण्ड के अन्तमेरु से गुल्लू की शुरूआत तक परदों की व्यवस्था की जाती है । सितार की आंस (गूंज) बड़ाने के लिए तरब के तारों का प्रयोग गिया जाता है जोकि डाण्ड के पते पर छिद्र करके बारीक हड्डी के बने छोटे - छोटे छिद्र युक्त कोके लगाए जाते है, जिनमें से तार गुज़र कर डाण्ड के खोखले भाग के नीचे से छोटी खूंटियों की और जाते है ।

खूंटिया :- तारों को बांधने और कसने के लिए सितार में लकड़ी की बनी सात खूंटियां लगी होती है । पहले प्रायः हाथी दांत अथवा हड्डी की बना कर लगाई जाती थी । आजकल यह खूंटियां लकड़ी की बनाई जाती है और इनके उपर भी बारीक पत्तियां तराश कर बनाई जाती है ।

इन बड़ी सात खूंटियों के अतिरिक्त तरब की तारों को बांधने के लिए छोटी खूंटियां लगाई जाती है । यह खूंटियां डाण्ड के उस भाग पर लगाई जाती है जहां चिकारी की दो तारों के लिए बड़ी खूंटियां होती है तथा परदे बांधने की व्यवस्था होती है ।

इस प्रकार सितार में बड़ी सात खूंटियां तथा छोटी खूंटियों की संख्या ग्‌यारह से तेरह तक की होती है ।

लंगोट :- सितार में एक ओर से तारों को बांधने के लिए खूंटियों का प्रयोग किया जाता है, दूसरे छोर में तार की मूर्की या फंदा जैसे बनाकर तूबे और तबली के जोड़ के पास एक पत्ता सा लगा होता है, इसमें हड्डी की बनी हुई तीन कीलें या हुक लगी होती है उनमें तार के कुंडे को लगा दिया जाता है । उसी पत्तेनुमा भाग को लंगोट कहते है । अलग - अलग स्थानों से चल कर सभी तार घुड़च के उपर से होकर गुज़रते है । इसके बाद सभी तार एक दूसरे के पास सिमटते हुए लंगोट में आकर फंस जाते है । यह लंगोट घुड़च के सामने तबली के किनारे के पास तूबे पर लगाया जाता है ।

घुड़च या जवारी :- तबली के उपर ठीक बीच में हड्डी, हाथी दांत अथवा हिरण के सींग की बनी हुई एक छोटी सी ब्रिज नुमा चौकी को, जिसके उपर से, सितार के उपर के मुख्य तार तथा छोटी चौकी के उपर से तरब (नीचे) के तार गुज़र कर जाते है, को घुड़च कहते है । कुछ लोग इसे घोड़ी भी कहते है । तबली के उपर घुड़च रखने का स्थान आवश्यकतानुसार कारीगर (सितार बनाने वाले) निश्चित करते है । सामान्य रूप से घुड़च तबली के मध्य क्षेत्र से कुछ लंगोट की और हटा कर रखी जाती है । यह उपर से सपाट होती है जिसके उपर से मुख्य सात तार गुज़रते है । इस घोड़ी की हड्डी में, लंगोट की ओर साधारण सी मुंडेर होती है जिसमें खांचे बने होते है, घुड़च पर रखे गए तारों का परस्पर अन्तर समान नही होता है । बाज तथा जोड़ी के तारों का अन्तराल सर्वाधिक होता है । जोड़ी के बाद चिकारी तक के तारों में यह अन्तर कम हो जाता है । बाज का तार बजाते हुए अन्य तारों में अनावश्यक झंकार न हो, इसी लिए जोड़ी तथा बाज के तार में सबसे अधिक अन्तर रखा जाता है ।

घुड़च का उपरी सपाट भाग जवारी कहलाता है । इसके उपर तारों को रखने की ऐसी व्यवस्था की जाती है, जिससे तार की ध्वनि में मधुर झंकार उत्पन्न हो । सितार में सबसे महत्वपूर्ण कार्य जवारी का ही होता है । क्योंकि वाद्य चाहे जितना अच्छा हो, यदि उसकी जवारी ठीक खुली न होगी तो उसकी झंकार ठीक नही होगी । यदि जवारी अच्छी खुली हो तो वाद्य को मिलाने में कठिनाई नही होती तथा मीण्ड, मुर्की, कृन्तन आदि स्पष्ट और मधुर सुनाई पड़ते है ।

परदा :- सितार पर घुड़च की व्यवस्था कर के परदे बांधे जाते है । परदे पीतल अथवा लोहे की श्लाकाओं (सलाईयां) के बने होते है, प्राचीन एवं मध्य काल में इसे सारिकाएं कहा जाता था । इस प्रकार सारिका, सुन्दरी, कट, पर्दा, उपनाह और हारावली एक ही अवयव के भिन्न नाम है । इन्ही पर्दों पर तार दबा कर भिन्न - भिन्न स्वर निकाले जाते है । पीतल या लोहे की श्लाका को डाण्ड की चौड़ाई की नाप से काट लेते है । परदा बांधने के लिए तांत, मछली पकडऩे वाली रेशमी धागे या नायलोन के पतले धागे का प्रयोग करते है । परदे को डाण्ड के उपर रख कर नायलोन की डोरी से परदे के किनारों पर से घुमा कर डाण्ड के नीचे की तरफ से परदे के दूसरे किनारे के खांचे में से लगा कर दोनों किनारों को कसा जाता है ।

सितार में दो तरह के परदों की व्यवस्था की जाती थी । अव्वल बाईस परदों वाली जिनमें परदों को सरकाया नही जाता था, वह अचल थाट वाली सितार कहलाती थी । दूसरे प्रकार की सितार में कम पर्दे होते है । ऐसी व्यवस्था में परदों को आगे पीछे सरका कर इच्छानुरूप राग की अवतारणा की जाती थी । ऐसी व्यवस्था को चल थाट की सितार कहते थे ।

अट्टी :- डाण्ड शीर्ष स्थान पर खूंटियों के पास उपर की और हड्डी की बनी एक चपटी सी उठी हुई पत्ती होती है, जिसके उपर तार अटके रहते है । इस उपभाग को अट्टी कहते है । यह टुकड़ा डाण्ड की चौड़ाई से एक इंच आगे की और बड़ा होता है और लगभग एक इंच तक या कुछ कम उचाई पर उठी हुई स्थिति में स्थित रहता है । भिन्न - भिन्न खूंटियों से आते हुए तार आपसी कुछ दूरी से तार गहन के छिद्रों में से गुज़र कर अट्टी के उपर टिकाए जाते है तथा यही से सीधे घुड़च के उपर टिकते है । अट्‌टी को पसीचा, अन्तमेरु, आड़ी, सेतु या सरस्वती नाम से संबोधित किया जाता है । घुड़च और अट्टी की उंचाई इतनी रखी जाती है ताकि तारें परदों को न छू सके ।

तारदान :- अट्टी से पौन इंच आगे तारदान होता है । यह भी उसी प्रकार की हड्डी का बना होता है । तारदान में तारों को गुज़ारने के लिए बारीक - बारीक छिद्र तारों के अनुसार कुछ दूरी पर किये जाते है । तार का प्रवेश तारदान के मध्य बनाए गए छिद्रों से होता है और अट्टी के उपर से ।

पपीहा :- चिकारी की दो खूंटियों के, जो डाण्ड के उस क्षेत्र में होती है जहां परदे बंधे रहते है, तारों को घुड़च के स्तर या सतह पर लाने के लिए दो अलग - अलग हड्डियों की कीलें, कुछ आगे डाण्ड के किनारे पर लगाई जाती है । यह कीलें चिकारी के तारों को अन्य तारों की उंचाई में लाने के लिए स्ंटैड का काम करती है । इस उपभाग को चिकारी कोका, पपीहा, दाड़ या कील भी कहा जाता है । इसके उपर तार बिठाने के लिए एक साधारण कट या खांचा पतली आरी से लगा दिया जाता है ताकि पपीहा पर तार टिका रहे ।

मनका :- तारों के सूक्षम अन्तर को मिलाने के लिए मोती लगाए जाते है जिनको मनका कहा जाता है । बाज और जोड़ी तार हेतु इन्हे घुड़च और लंगोट के मध्य रखा जाता है तथा शेष तारों के लिए अट्टी और मुख्य खूंटी के मध्य रखते है । सामान्यतः यह भी हाथी दांत या हड्डी के बने होते है । इसे, तार में सूक्ष्म अन्तर पैदा हो जाने पर, आवाज़ में शुद्धता लाने के लिए, आगे या पीछे सरकाया जाता है ।